(आँनलाइन निःशुल्क कोचिंग) सामान्य अध्ययन पेपर - 1: भारतीय इतिहास (मध्यकालीन भारत) "अध्याय - बहमनी साम्राज्य"

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विश्वय - भारतीय इतिहास (मध्यकालीन भारत)

अध्याय - बहमनी साम्राज्य

दक्कन में अमीरान-ए-सदह के विद्रोह के परिणाम स्वरूप मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के अन्तिम दिनों में जफर खाँ नामक सरदार अलाउद्दीन हसन बहमन शाह की उपाधि धारण करके 347 ईo में सिंहासनारूढ़ हुआ और बहमनी साम्राज्य की नींव डाली। उसने गुलबर्गा को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया तथा उसका नाम अहसानाबाद रखा। उसने हिन्दुओं से जजिया न लेने का आदेश दिया। अपने शासन के अन्तिम दिनों में बहमनशाह ने दाभोल पर अधिकार किया जो पश्चिम समुद्र तट पर बहमनी साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण बन्दरगाह था।

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मुहम्मद शाह प्रथम के शासन में प्रथम बार बारूद का प्रयोग हुआ जिससे रक्षा संगठन में एक नई क्रान्ति पैदा हुई। सेना के सेनानायक को अमीर-ए-उमरा कहा जाता था। उसके नीचे बारवरदान होते थे। 1397 ईo में ताजुद्दीन फिरोजशाह बहमनी वंश का शासक बना। उसने एशियाई विदेशियों या अफकियो को बहमनी साम्राज्य में आकर स्थायी रूप से बसने के लिए प्रोत्साहित किया। बहमनी में अमीर वर्ग अफ्रीकी और दक्कनी दो गुटों विभाजित हो गया। यह दलबन्दी बहमनी साम्राज्य के पतन और विघटन का मुख्य कारण सिद्ध हुआ। फिरोजशाह बहमनी ने प्रशासन में बड़े स्तर पर हिन्दुओं को सम्मिलित किया। उसने दौलताबाद में एक वेधशाला बनवाई। उसने अकबर के फतेहपुर सीकरी की भाँति भीमा नदी के किनारे फिरोजाबाद नगर की नींव डाली। गुलबर्गा युग के सुल्तानों में यह अन्तिम सुल्तान था। शिहाबुद्दीन महमूदशाह के शासन काल (1482-1518 ईo) में प्रान्तीय तरफदारों ने अपनी स्वतन्त्राता घोषित करना प्रारम्भ कर दिया और पन्द्रहवीं शताब्दी के अंत तक बहमनी साम्राज्य खण्डित हो गया। इस वंश का अन्तिम सुल्तान कली मुल्लाशाह था। 1527 ईo मे उसकी मृत्यु के बाद बहमनी साम्राज्य का अन्त हो गया। इमादशाही और निजामशाही राजवंशों के संस्थापक हिन्दू से इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले दक्कनी लोग थे।

बहमनी साम्राज्य के पतन के पश्चात् बने नये राज्य

सबसे पहले बहमनी साम्राज्य से अलग होने वाला क्षेत्रा बगर था, जिसे फतहउल्ला इमादशाह (हिन्दु से मुस्लमान) ने 1484 ईo में स्वतन्त्रा घोषित करके इमादशाही वंश की स्थापना की। 1547 ईo में बरार को अहमद नगर ने हड़प लिया। बीजापुर के सूबेदार यूसुफ अदिल खाँ ने 1489-90 ईo में बीजापुर को स्वतन्त्रा घोषित करके अदिलशाही वंश की स्थापना की। 1534 ईo में इब्राहिम अदिल शाह बीजापुर का पहला सुल्तान बना जिसने शाह की उपाधि धारण की व फारसी के स्थान पर हिन्दवी (दक्कनी-उर्दू) को राजभाषा बनाया और हिन्दुओं को अनेक पदों पर नियुक्त किया। इब्राहिम के बाद अली आदिलशाह द्वितीय 1580 ईo में शासक बना। इसे जगतगुरू की उपाधि प्राप्त हुई। मुहम्मद कुली हैदराबाद नगर का संस्थापक और दक्कनी उर्दू में लिखित प्रथम काव्य संग्रह या दीवान का लेखक था।

उसने उर्दू और तेलगू को समान रूप से संरक्षण प्रदान किया। 1687 ईo  में औरंगजेब ने इस राज्य पर अधिकार कर उसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया। कुतुबशाही साम्राज्य की प्रारम्भिक राजधानी गोलकुण्डा विश्व प्रसिद्ध बन्दरगाह था। अमीर अली वरीद ने बीदर को स्वतन्त्रा घोषित करके वरीद शाही वंश की स्थापना की। इसे दक्कन की लोमड़ी कहा जाता था। बहमनी साम्रज्य से स्वतन्त्रा होने वाले राज्य क्रमशः बरार, बीजापुर, अहमद नगर, गोलकुण्डा तथा बीदर हैं।

विजयनगर साम्राज्य

विजयनगर साम्राज्य की स्थापना मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल की अल्पावस्था के दौरान हुई। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर और बुक्का ने की थी। हरिहर और बुक्का होयसल राजा वीर बल्लाल तृतीय की सेवा में थे व बाद में कांपिली (आधुनिक कर्नाटक) में राज्य में मंत्री बन गए। जब एक मुसलमान विद्रोही को शरण देने के कारण कंापिली पर मुहम्मद तुगलक ने आक्रमण करके उसे जीत लिया, तो इन दोनों भाइयों को बंदी बनाकर इस्लाम में दीक्षित कर लिया गया एवं दिल्ली लाया गया।

संगम वंश

हरिहर और बुक्का प्रथम संगम के पुत्रा थे और उन्होंने अपने पिता के नाम पर ही अपने वंश की स्थापना की। अतः 1336 ईo  में स्थापित विजय नगर के पहले वंश को ‘संगम वंश’ कहा जाता है। हरिहर प्रथम ने 1336 ईo  से 1356 तक शासन किया और उसके भाई बुक्का प्रथम ने राजकाज में उसकी मदद की। हरिहर प्रथम ने 1352-53 ईo  में दो सेनाएं दो राजकुमारों सवन्ना और कुमार कम्पन के नेतृत्व में मदुरा के सुल्तान के विरुद्ध भेजी और उसे विजयनगर में मिला लिया।

1410 ईo  में उसने तुंगभद्रा पर बांध बनवाकर अपनी राजधानी विजयनगर तक नहरंे (जलसेतु या जलप्रणाली) निकलवाई। देवराय प्रथम के शासन काल में इतावली यात्री निकोलोकोंटी ने विजय नगर की यात्रा की। देवराय के दरबार में हरविलासम और अन्य ग्रन्थों के रचनाकार प्रसिद्ध तेलगू कवि श्रीनाथ सुशोभित करते थे। इन्होंने अपने राजप्रासाद के ‘मुक्ता सभागार’ में प्रसिद्ध व्यक्तियों को सम्मानित किया करता था।
देवराय द्वितीय 1422 ईo  में शासक बना। इसने अपनी सेना को शक्तिशाली बनाने तथा बहमनियों की बराबरी के लिए उसने सेना में मुसलमानों को भर्ती किया तथा उन्हे जागीरें दी। देवराय द्वितीय के समय में फारसी (ईरानी) राजदूत अब्दुर्रज्जाक ने विजयनगर की यात्रा की थी।

सालुव वंश

विजयनगर में व्याप्त अराजकता की स्थिति को देखकर साम्राज्य के एक शक्तिशाली सामन्त-शासक नरसिंह सालुव ने 1485 ईo  में राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार संगम वंश ‘प्रथम बलापहार’ के द्वारा उखाड़ फेंक दिया गया। विजयनगर के द्वितीय राजवंश का संस्थापक सालुव नरसिंह था। सालुव नरसिंह ने सेना को शक्तिशाली बनाने के लिए अरब व्यापारियों को अधिक से अधिक घोड़े आयात करने के लिए प्रलोभन एवं प्रोत्साहन दिया। सालुव नरसिंह ने अपने अल्प व्यस्क पुत्रा के संरक्षण के रूप में नरसा नायक को नियुक्त किया। 1505 ईo  में नरसा नायक के पुत्रा वीर नरसिंह ने सालुव नरेश इम्माडि नरसिंह की हत्या करके स्वयं सिंहासन पर अधिकार कर लिया और विजयनगर साम्राज्य के तृतीय या तुलुव राजवंश की स्थापना की।

तुलुव वंश

1509 ईo में वीर नरसिंह की मृत्यु के बाद उसका अनुज कृष्ण देव राय सिंहासनारूढ़ हुआ।

वह विजयनगर साम्राज्य में महानतम एवं भारत के महानशासकों में से एक था। उसने 1520 ईo में बीजपुर को पराजित करके सम्पूर्ण रायचूर दोआब पर अधिकार कर लिया। कृष्ण देवराय ने बीदर और गुलबर्गा पर आक्रमण करके बहमनी सुल्तान महमूदशाह को कारागार से मुक्त करके बीदर की राजगद्दी पर आसीन किया। इस उपलब्धि की स्मृति में कृष्ण देवराय ने यवनराज स्थापनाचार्य के विरुद्ध धारण किया। कृष्ण देवराय का पुर्तगालियों से बीजापुर से शत्रुता  तथा घोड़ों की आर्पूर्ति के कारण अच्छे संबंध थे। 1510 ईo में अलबुकर्क ने फादर लुई को कालीकट के जमेरिन के विरुद्ध युद्ध सम्बन्धी समझौता करने और भटकल में एक कारखाने की स्थापना की अनुमति मांगने के लिए विजयनगर कृष्ण देवराय के दरबार में भेजा। कृष्ण देवराय ने अपने प्रसिद्ध तेलगू आमुक्तमाल्यद में अपने राजनीतिक विचारों और प्रशासनिक नीतियों का विवेचन किया है। उसके दरबार में तेलगू के आठ महान विद्वान एवं कवि सुशोभित थे। अतः उसे आन्ध्र भोज भी कहा जाता है। अष्टदिग्गज तेलगू कवियों में पेड्डना सर्वप्रमुख थे जो संस्कृत एवं तेलगू दोनों भाषाओं के ज्ञाता थे।

आरवीडु वंश

1571 ईo में उसने तलुव वंश के अन्तिम शासक सदाशिव को अपदस्थ करके आरवीडु वंश की स्थापना की। 1586 ईo में वेंकट द्वितीय गद्दी पर बैठा उसने चन्द्रगिरि को अपना मुख्यालय बनाया। कालान्तर में मुख्यालय पेन्कांण्डा स्थानांतरित कर लिया। 1612 ईo में राजा ओडियार ने उसकी (वेंकट द्वितीय) अनुमति लेकर श्री रंगपट्टनम की सूबेदारी के नष्ट होने पर मैसूर राज्य की स्थापना की।

विजयनगर साम्राज्य का प्रशासन

अच्युतदेवराय ने अपना राज्याभिषेक तिरूपति मन्दिर में सम्पन्न करवाया था। विजयनगर काल में भी दक्षिण भारत की ‘संयुक्त शासक’ परम्परा का निर्वाह किया गया। युवराज की नियुक्ति के बाद उसका राज्याभिषेक किया जाता था जिसे युवराज पट्टाभिषेकम् कहते थे। राज्यपरिषद् के बाद केन्द्र में मंत्रिपरिषद होती थी जिसका प्रमुख अधिकारी ‘प्रधानी’ या ‘महा प्रधान’ होता था। इनकी सभाएं वेंकटविलास पाण्डय नामक सभागार में आयोजित की जाती थी। मन्त्रिापरिषद में सम्भवतः बीस सदस्य होते थे। मन्त्रिापरिषद के अध्यक्ष को ‘सभा नायक’ कहा जाता था। केन्द्र में दण्डनायक नामक उच्च अधिकारी भी होते थे। दण्डनायक पदबोधक नही था वरन् विभिन्न अधिकारियों की विशेष श्रेणी को दण्डनायक कहा जाता था। राजा और युवराज के बाद केन्द्र का सबसे बड़ा प्रधान (मुख्य) अधिकारी प्रधानी होता था जिसकी तुलना हम मराठा कालीन पेशवा से कर सकते हैं। विजयनगर काल में भू-राजस्व एवं भू-धारण व्यवस्था बहुत व्यापक थी और भूमि को अनेक श्रेणियों मे विभाजित किया गया था। भूमि मुख्यतः सिंचाई युक्त या सूखी जमीन के रूप में वर्गीकृत की जाती थी। विजयनगर काल में पूरे साम्रज्य में भू-राजस्व की दरें समान नहीं थी। जैसे - ब्राह्मणों के स्वामित्व वाली भूमि उपज का बीसवां भाग और मन्दिरों की भूमि से उपज का तीसवां भाग लगान के रूप में लिया जाता था। राज्य उपज के छः वंें भाग को भूमि कर के रूप में वसूल करता था। सामाजिक और सामुदायिक करों में ‘विवाह कर’ बहुत रोचक है। यह कर वर और कन्या दोेनों पक्षों से वसूल किया जाता था। शिष्ट नामक कर राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। केन्द्रीय राजस्व विभाग को अठावन (अस्थवन या अथवन) कहा जाता था। भूमि-मापक पट्टिकाओं या जरीबों के विभिन्न नाम थे- जैसे- नदनक्कुल राजव्यंदकोल व गंडरायगण्डकोल। भंडारवाद ग्राम ऐसे ग्राम थे जिसकी भूमि राज्य के प्रत्यक्ष नियन्त्राण में होती थी। इन ग्रामों के किसान राज्य को कर देते थे। धार्मिक सेवाओं के बदले में राज्य की ओर से ब्राह्मणों, मठों और मदिरों को दान में दी गई भूमि ब्रह्मदेय, देवदेय, मठापुर भूमि कहलाती थी। यह भूमि कर मुक्त थी। सैनिक एवं असैनिक अधिकारियों को विशेष सेवाओं के बदले जो भू-खण्ड दिये जाते थे ऐसी भूमि को ‘अमरम्’ कहा जाता था। इसके प्राप्तकर्ता ‘अमरनायक’ कहलाते थे। इस भू-धारण व्यवस्था को नायंकर व्यवस्था कहते थे। उंबति-ग्राम कुछ विशेष सेवाओं के बदले जिन्हंे लगान मुक्त भूमि दी जाती थी ऐसी भूमि को उंबलि कहते थे। युद्ध में शौर्य प्रदर्शित करने वालों या अनुचित रूप से युद्ध में मृत लोगों के परिवार को दी गई भूमि रत्त (खत्त) काडगै कहलाती थी। इस युग में ब्राह्मण, मंदिर और बड़े भू-स्वामी, जो स्वंय खेती नहीं करते थे। ऐसे पट्टे पर दी गई भूमि को कुट्टगि कहा जाता था। कुट्टगि वस्तुतः नकद या जिस के रूप में उपज का अंश था जिसे किसान भू-स्वामी को प्रदान करता था। भू-स्वामी एवं पट्टीदार के मध्य उपज की हिस्सेदारी को वारम व्यवस्था कहते थे। खेती में लगे कृषक मजदूर कुदि कहलाते थे। भूमि के क्रय-विक्रय के साथ उक्त कृषक-मजदूर भी हस्तांतरित हो जाते थे। यदि किसी व्यक्ति की बिना किसी वारिस के मृत्यु हो जाती थी तो ऐसे व्यक्ति की सम्पत्ति का उपयोग सिंचाई के साधनों आदि की मरम्मत के लिए किया जाता था। विजयनगर का सर्वाधिक प्रसिद्ध सिक्का स्वर्ण का ‘वराह’ था जिसे विदशी यात्रियों ने हूण, परदौसा या पगोडा के रूप में उल्लेख किया है। सोने के छोटे सिक्के को प्रताप तथा फणम् कहा जाता था। चांदी के छोटे सिक्के तार कहलाते थे। विजयनगर का बराह एक बहुत सम्मानित सिक्का था। जिससे सम्पूर्ण भारत तथा विश्व के प्रमुख व्यापारिक नगरों में स्वीकार किया जाता था। वह भारतीय इतिहास का अन्तिम साम्राज्य था जो वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित पराम्परिक समाजिक संरचना को सुरक्षित और सम्बन्धित करना अपना कत्र्तव्य समझता था। ब्राह्मणों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे जिसमें सबसे महत्वपूर्ण विशेषधिकार यह था कि उन्हें मृत्यु दण्ड नहीं दिया जा सकता था।

कबर ने इस्लामी सिद्धान्त के स्थान पर सुलहकुल की नीति अपनाई। अकबर ने फतेहपुर सीकरी में एक ‘इबादतखाना’ की स्थापना 1575 ईo में करवाया। महदी जारी होने के बाद अकबर ने सुल्तान-ए-आदिल या इमाम-ए-आदिल की उपाधि धारण की। अकबर ने 1582 ईo में तौहीद-ए-इलाही (दैवीएकेश्वरवाद) या दीन-ए-इलाही नामक एक नया धर्म प्रवर्तित किया। ‘दीन-ए-इलाही’ धर्म में दीक्षित शिष्य को चार चरणों अर्थात् ‘चहारगान-ए-इख्लास’ को पूरा करना होता था। ये चार चरण थे- जमीन, सम्पत्ति, सम्मान व धर्म। अकबर ने ‘झरोखा दर्शन’ तुलादान, तथा पायबोस जैसी पारसी परम्पराओं को आरम्भ किया। अकबर ने जैन धर्म के आचार्य ‘हरिविजय सूरि’ को जगतगुरु तथा जिन चन्द्र सूरि को ‘युग प्रधान’ की उपाधि दी थी। अकबर हिंदू धर्म से सबसे अधिक प्रभावी था।

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