(The Gist of Kurukshetra) पर्यावरण - अनुकूल जैविक खेती [April-2018]


(The Gist of Kurukshetra) पर्यावरण - अनुकूल जैविक खेती [April-2018]


पर्यावरण - अनुकूल जैविक खेती

भारत में 1965-66 में कृषि के क्षेत्र में हरितक्रांति की शुरुआत के बाद से देश की बेतहाशा बढ़ रही आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए खेती में उर्वरकों के इस्तेमाल को भारी बढ़ावा मिला है। परिणामस्वरूप हमने अपने लक्ष्यों को पूरा किया है और खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त की है। लेकिन सघन खेती प्रणाली के खतरे बड़े चुनौती भरे हैं क्योंकि इनसे पारिस्थितिकीय संतुलन पर भारी असर पड़ता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आर्गेनिक या जैविक खेती पर आधारित प्रणाली की बात सोची गई जिसमें रासायनिक उर्वरकों की बजाय कार्बनिक पदार्थों के सड़ने-गलने से प्राप्त खाद का प्रयोग किया जाता है। जैविक पदार्थों से बनी खाद के इस्तेमाल पर आधारित यह प्रणाली हमारे समाज में प्राचीनकाल से ही प्रचलित रही है। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ आर्गेनिक एग्रिकल्चर मूवमेंट्स (आर्गेनिक खेती अभियानों का अंतर्राष्ट्रीय परिसंघ-आईएफओएएम) एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय संगठन है जो जैविक खेती के मानकों को विनियमित करता है और दुनिया भर में आर्गेनिक खेती की अवधारणा को बढ़ावा देने के लिए विश्व के 120 से अधिक देशों को एकजुट कर उनकी मदद करता है। आईएफओएएम के अनुसार जैविक खेती ऐसी उत्पादन प्रणाली है जो जमीं, परिस्थितिकिय प्रणाली और लोगो के स्वास्थ्य को बनाये रखती है।

अवधारणा

यह उत्पादन प्रबंधन प्रणाली आमतौर जैविक पदार्थों या खेत आधारित संसाधनों (फसलों के अवशिष्ट पदार्थोंमवेशियों के गोबर हरी खादखेतों और उनके बाहर के अपशिष्टग्रोथ रेग्युलेटरोंजैव उर्वरकों, बायो पेस्टिसाइड आदि पर आधारित है। इसमें खेतों से बाहर के कृत्रिम पदार्थों (उर्वरकों, कवकनाशकों, खरपतवार नाशकों आदि) के उपयोग को हतोत्साहित किया जाता है ताकि मिट्टी, पानी और हवा को प्रदूषित किए बगैर लंबी अवधि तक प्राकृतिक संतुलन को कायम रखा जा सके। इसमें खेती के लिए किसी स्थान विशेष से संबंधित फसल वैज्ञानिक, जैविक और यांत्रिक विधियों का उपयोग किया जाता है ताकि संसाधनों का पुनर्चक्रण हो सके। और कृषि-पारिस्थितिकीय तंत्र पर आधारित स्वास्थ्य को बढ़ावा दिया जा सके।

उदेश्य

  • कृषि रसायनो का उपयोग न करना

  • प्राकृतिक संतुलन को बरकरार रखना

  • पौष्टिक आहार का उत्पादन

  • ग्रामीण आजीविका को लाभप्रद जैविक खेती के ज़रिए बढ़ावा देना

  • मिटटी और पानी जैसे ससंसाधनो का सरंक्षण

  • फसल उतपासन के साथ- साथ पशुधन का व्यवस्थिति विकास

  • जैव विविधता और पारिस्थितिकय प्रणाली सम्बन्धी सेवाओं का सरंक्षण और सवर्धन

  • प्रदुषण की रोकथाम

  • खेती में जीवाश्म ईंधन से प्राप्त ऊर्जा का उपयोग कम करना

  • अधिक टिकाऊ और उत्पादक कृषि प्रणाली का विकास करना।

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जैविक खेती के घटक

(क) फसल और मृदा प्रबंधन : इस प्रणाली का उदेश्य मिटटी के उपजाऊपन को दीर्घकालीन आधार पर बनाए रखने के लिए उसमें जैविक पदार्थों के स्तर में वृद्धि करना है। इस घटक। के तहत फसल की विभिन्न किस्मों में से चयन, समय पर बुआई करनेफसलों की अदला-बदली करके बुआई करने, हरी खाद के उपयोग और लेग्यूम जैसी फसलों को साथ बोने पर जोर दिया जाता है।

(ख) पौष्टिक तत्वों का प्रबंधन : इसमें जैविक पदार्थों जैसे पशुओं के गोबर की खाद के उपयोग, कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, फसल अपशिष्ट के उपयोग, हरी खाद और जमीन की उत्पादकता बढ़ाने के लिए कवर क्रॉप को उगाया जाता है। पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण के महत्व को ध्यान में रखते हुए फसलों की अदला-बदली करके बुआई और जैव उर्वरकों को भी शामिल जाता है।

(ग) पादप संरक्षण : कीड़े-मकोड़ों, बीमारी फैलाने वाले पैथोजीनों और अन्य महामारियों को नियंत्रित करने के लिए मुख्य रूप से फसलों की अदला-बदली करके बुवाई, प्राकृतिक कीट नियंत्रकोंस्थानीय किस्मोंविविधता और जमीन की जोत का सहारा लिया जाता है। इसके बाद वानस्पतिक, तापीय और रासायनिक विकल्पों का इस्तेमाल सीमित स्थितियों में अंतिम के तौर पर किया जाता है।

(घ) पशुधन प्रबंधन : मवेशियों को पालने के लिए उनके उविकास संबंधी अनुकूलनव्यवहार संबंधी आवश्यकताओं और उनके कल्याण संबंधी मुद्दों जैसे पोषाहार, आश्रयप्रजनन आदि) पर पूरा ध्यान दिया जाता है।

(ड) प्रदा और जल-संरक्षण : बारिश के फालतू पानी से जमीन का कटाव होता है। इसे कंटूर खेतीकंटूर बांधों के निर्माण सीढ़ीदार खेतीपानी के बहाव के मार्ग में घास उगाने जैसे उपायों से रोका जा सकता है। शुष्क इलाकों में क्यारियों के बीच बारिश के पानी को जमा करके, ब्राड बेड और फरो प्रणाली, भूखंडों के बीच वर्षा जलसंचयऔर स्कूपिंग जैसे उपाय अपनाकर पानी का संरक्षण किया जा सकता है। खेती में फसलों के चयन का बड़ा महत्व है क्योंकि बहुत-सी फसलें कई तरह से उपयोग में लाई जा सकती हैं। जैसे पीजनपी और मोथ बीन की फसलों में सूखे का प्रतिरोध करने की क्षमता होती है। इन्हें चारे के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इन्हें शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में उगाकर अधिकतम लाभ अर्जित किया जा सकता है। इनकी खेती से मिट्टी के कटाव को रोकने और जमीन में पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण में भी मदद मिलती है।

जैविक खेती का महत्व

खेती संबंधी गतिविधियों की चुनौतियां दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। उदाहरण के लिए खेती की लागत बढ़ गई है, पानी की कमी होती जा रही है और खेती के लिए मजदूर मिलना मुश्किल होने लगा है। ऐसे में अगर हम खेती की वर्तमान प्रणाली का उपायोग करते रहे तो इससे सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के और गंभीर होने के साथ-साथ पारिस्थितिकीय तंत्र के नष्ट होने का खतरा बढ़ सकता है। इसलिए हमें समग्र दृष्टिकोण अपनाना होगा और सघन खेती की तुलना में पारंपरिक खेती के फायदों को ध्यान में रखते हुए अधिक फायदेमंद तरीके अपनाने होंगे। चित्र में विभिन्न क्षेत्रों में जैविक खेती के बेहतर होने को दर्शाया गया है। देश की विकास प्रक्रिया में कृषि प्रणाली की ज्यादा अहम भूमिका है चाहे यह भूमिका रोजगार के सृजन में हो, जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने की हो या पौष्टिक आहार एवं स्वास्थ्य में सुधार को लेकर हो। यानी आज खेती के स्मार्ट तौर-तरीकों के चयन और उन्हें अपनाने पर बहुत कुछ निर्भर है।

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Courtesy: Kurukshetra