(आँनलाइन निःशुल्क कोचिंग) सामान्य अध्ययन पेपर - 1: भारतीय इतिहास "अध्याय - कुषाण साम्राज्य"

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विश्वय - भारतीय इतिहास

अध्याय - कुषाण साम्राज्य

कुषाण यू-ची कबीले से संबंधित थे। उनका मूल स्थान चीन के पास था। उसने रक्षा के लिए प्रसिद्ध चीन की दीवार बनाई गई थी। भारत में कुषाण वंश का प्रथम शासक ‘कुजुल कडाफिसस’ (15 ई.-65 ई.) था। उसका पुत्रा विम विमडफिसस के सिक्कों पर शिव का चित्रा है।

कनिष्क (78 ई.-144 ई.)

इस वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक कनिष्क था। यह मौर्योत्तर काल का सबसे प्रसिद्ध शासक था। उसका साम्राज्य पूर्व में मगध तक तथा दक्षिण में सांची तक था। कनिष्क का साम्राज्य तत्कालीन विश्व में तीन बड़े साम्राज्यों रोम, पर्थिया तथा चीन के समकक्ष था। कल्हण के अनुसार उसने कश्मीर में ‘कनिष्कपुर’ नगर बसाया। उसने मध्य एशिया में खोतान, काशगर तथा समरकंद को भी विजित किया था। उसने पाटलिपुत्रा से बौद्ध विद्वान अश्वघोष, बुद्ध का भिक्षापात्रा आदि प्राप्त किया था।

मौर्यात्तरकालीन प्रशासन, समाज एवं धर्म

इस काल में राजतंत्रा में दैवीक तत्वों का समायोजन किया गया। शकों एवं पर्थियनों ने संयुक्त शासन (राजा तथा राजकुमार) की प्रथा आरंभ की। कुषाणों ने मृत राजाओं की मूर्तियां स्थापित कर मंदिरों का निर्माण (देवकुल) करवाया। कुषाणों ने घुड़सवारी, लगाम, जीन, पगड़ी, लंबे कोट, बूट आदि को भारत में प्रचलित किया।

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अर्थव्यवस्था

कुषाणों ने सर्वाधिक शुद्ध सोने के सिक्के जारी किये। इस काल में विदेशी व्यापार उन्नत अवस्था में था। सबसे प्रसिद्ध पश्चिमतटीय बंदरगाह ‘भंडौच’ था। सबसे प्राचीन सोपारा तथा बड़ा कल्याण बंदरगाह था। मध्य एशिया से गुजरने वाला वह व्यापारिक मार्ग जो चीन को पश्चिम के एशियाई-भू-भाग एवं रोमन साम्राज्य से जोड़ता था, सिल्क मार्ग कहलाता था। इसमें भारतीय व्यापारियों की भूमिका मध्यस्थों की होती थी।

गुप्त साम्राज्य (275 ई.-550 ई.)

‘गुप्त’ नाम इस वंश के संस्थापक का था और सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त प्रथम ने इसे अपने नाम के साथ प्रयुक्त किया। गुप्त वंश से संबंधित जानकारी के स्रोत-नारद एवं बृहस्पति स्मृति, आर्यमंजुश्रीमूकल्प, हरिवंश पुराण, वायु पुराण, कौमुदी महोत्सव, देवीचन्द्रगुप्तम, नीतिसार, कालिदास की कृतियां, फाहियान का विवरण।

गुप्त शासक

गुप्त वंश का संस्थापक श्रीगुप्त (लगभग 275 ई.) का माना जाता है।
श्रीगुप्त कुषाणों का सामंत था। स्कन्दगुप्त के सुपिया (रीवा) अभिलेख में गुप्तों की वंशावली घटोत्कच से आरंभ होती है।

चन्द्र गुप्त प्रथम (320-335 ई.)

उसने महाराजाधीराज की उपाधि धारण की तथा लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया। उसने 319-320 में गुप्त संवत चलाया। उसके स्वर्ण सिक्के को राजा-रानी प्रकार या विवाह प्रकार कहा जाता है।

समुद्रगुप्त (335-380 ई.)

हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त का राज्य प्रदान करने का वर्णन है। यह प्रशस्ति अशोक के लेख स्तंभ पर अंकित है, जिसमें अशोक द्वारा बौद्ध संघ में विभेद रोकने का निर्देश है। ‘काच’ नामधारी सिक्कों के आधार पर कुछ विद्वानों ने कंाच को समुद्रगुप्त का विद्रोही भाई बताया है।

अशोक के अभिलेख

चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (380-415 ई.)

चन्द्रगुप्त द्वितीय से संबंधित अभिलेख हैं- मथुरा स्तंभ, महरौली का लौह स्तंभ, उदयगिरि के दो लेख, गढ़वा तथा संाची से प्राप्त अभिलेख। चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देवराज राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह किया। चन्द्रगुप्त ने उज्जैन को द्वितीय राजधानी बनायी। वहां पर उसके दरबार में नवरत्न विद्वान जैसे- कालिदास, अमरसिंह, धन्वंतरि, बाराहमिहिर आदि रहते थे। उसके काल में चीनी यात्री फाहीयान(399-414 ई.) भारत आया था।

फाहीयान के अनुसार उसके काल में मृत्युदंड नही दिया जाता था। उसके स्वर्ण के सिक्के ‘दीनार’ तथा चांदी के सिक्के ‘रूप्यक’ कहलाते थे।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वकाटक शासक रूद्रसेन द्वितीय से किया। ‘देवीचन्द्रगुप्तम’ नामक नाट्य ग्रंथ में चन्द्रगुप्त द्वितीय से पूर्व रामगुप्त नामक शासक का वर्णन किया गया है।

कुमारगुप्त (415-455 ई.)

चन्द्रगुप्त द्वितीय का पुत्रा कुमारगुप्त के अभिलेख हैं- गढ़वा अभिलेख, मथुरा तथा संाची अभिलेख, उदयगिरि-गुहालेख, दामोदरपुर ताम्रपत्रा, बिलासढ़ तथा तुमैन अभिलेख। वह कार्तिकेय का उपासक था। उसने ‘मयूर शैली’ की मुद्रा जारी की। मध्य भारत में रजत सिक्कों का प्रचलन उसके काल में हुआ। उसकी उपाधि ‘महेंद्रादित्य’ थी। उसने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की। उसने अश्वमेघ यज्ञ भी किया था।

स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)

स्कन्दगुप्त के प्रसिद्ध अभिलेख हैं- जूनागढ़, कहौम तथा गढ़वा शिलालेख, सुपिया व भितरी स्तंभ लेख, बिहार स्तंभ तथा इंदौर ताम्र पत्रा लेख। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार सौराष्ट्र प्रान्त में स्कन्दगुप्त का राज्यपाल पर्णदत्त था तथा गिरनार के चक्रपालित ने सुदर्शन झील का पुनर्निमाण करवाया था। इंदौर ताम्रपत्रा में सूर्य मंदिर में पूजा हेतु दान का विवरण है। भितरी स्तंभ में हूणों के साथ युद्ध का वर्णन है। जूनागढ़ अभिलेख में भी हूणों के आक्रमण एवं स्कन्दगुप्त की सफलता का उल्लेख है।

अवनति काल (467-550 ई.)

पुरूगुप्त (467-476 ई.) स्कंदगुप्त का सौतेला भाई पुरूगुप्त कमजोर शासक था। वह बौद्ध गुरू वसुबंधु का शिष्य था।

अशोक के विभिन्न नाम एवं उपाधि:

‘कुमार गुप्त द्वितीय’ इसका एक लेख सारनाथ में मिला है। कुमार गुप्त प्रथम द्वारा निर्मित ‘दशपुर सूर्य मंदिर’ का इसने जीर्णोद्धार कराया। ‘बुध गुप्त’ के लेख सारनाथ तथा एरण से प्राप्त हुए हैं। उसने शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया। ‘नरसिंह बालादित्य’ इस समय तक गुप्त साम्राज्य तीन राज्यों मगध, मालवा तथा बंगाल मे बंट चुका था। इसकी उपलब्धि थी कि इसने हूण शासक मिहिरकुल को पराजित किया तथा अपने राज्य में अनेक स्तूप तथा बिहार बनवाये। ‘भानुगुप्त’ एरण अभिलेख (510 ई.) में भानुगुप्त के मित्रा गोपराज की पत्नी के सती हो जाने का उल्लेख है। भानुगुप्त एवं हूण के बीच युद्ध को ‘स्वतंत्राता संग्राम’ भी कहा गया है। गुप्त वंश का अंतिम शासक ‘विष्णुगुप्त’ था।

प्रशासन

मौर्यो के विपरीत गुप्तों ने महाराजाधिराज तथा परमभट्टारक जैसी उपाधियां धारण की जिससे ज्ञात होता है कि गुप्तों ने अनेक छोट-छोटे राजाओं पर शासन किया। प्रांतीय शासक अपने क्षेत्रा में पर्याप्त रूप से स्वतंत्रा थे। परंतु यह व्यवस्था गुप्त वंश के Ðास का कारण सिद्ध हुई। सभी उच्च पद वंशानुगत थे। गुप्त साम्राज्य प्रांतों में, प्रांत भुक्ति विषयों (जिलों) में तथा विषय विथियों में तथा विथियां ग्रामों में विभाजित थे। ‘कुमारामात्य’ सबसे बड़े अधिकारी होते थे और प्रांतों के राज्यपाल बनाये जाते थे। ये राजपरिवार के सदस्य या राजकुमार होते थे। करों की कुल संख्या, 18 थी। भूमि कर (भाग) उत्पादन का छठा भाग था। कर्मचारियों को वेतन के बदले भूमि अनुदान भी दिया जाता था। ‘अग्रहार’ सिर्फ ब्राह्मणों को दिया जाने वाला भू-दान था। अमरकोष में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है।

अशोक के अभिलेख

स्तंभ लेख

स्तंभ लेख 7 हैं जो छह विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं। अकबर ने कौशांबी स्थित प्रयाग स्तंभ लेख को इलाहाबाद के किले मे स्थापित करवाया। टोपरा तथा मेरठ स्तंभ लेखों को फिरोजशाह तुगलक दिल्ली लाया और स्थापित किया। रामपुरवा, लौरिया (अरेराज) तथा लौरिया नंदनगढ़ स्तंभ लेख चंपारण (बिहार) में है।

लघु स्तंभलेख

अशोक की राजकीय घोषणायें जिन स्तंभों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें सामान्य तौर पर लघु-स्तंभ लेख कहा जाता है। इलाहाबाद स्तंभ लेख को रानी का लेख भी कहा जाता है। इलाहाबाद स्तंभ लेख में बुद्ध के जन्म स्थान में भू-राजस्व का 1/8 किये जाने का आदेश है। सारनाथ स्तंभ लेख में बौद्ध संघ में भेद रोकने का आदेश है।

गुहा लेख

गया जिले के बराबर पहाड़ी की तीन गुफाआंे में लेख हैं। ये गुफा आजीविक संन्यासियों के लिए बनाये गये थे।

अर्थव्यवस्था

गुप्तकाल में भूमिदान की प्रथा थी। राजा भूमि का मालिक माना जाता था। पश्चिम में सोपरा तथा भड़ौच एवं पूर्व में ताम्रलिप्ति प्रमुख बंदरगाह थे। भूमिकर (भाग), हिरण्य (नगद) अथवा मेय (अनाज का तौल) में दिया जा सकता था। गुप्त शासकों ने सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएं (दीनार) जारी किये। गुप्त काल में व्यापार के Ðास के संकेत मिलते हैं। रोम के साथ व्यापार का पतन हो गया। राज्य की आय का दूसरा प्रमुख स्रोत चुंगीकर था।

समाज

समाज में दास प्रथा का प्रचलन था तथा युद्धबंदियों को दास बनाने की प्रथा का प्रचलन था। हूणों को राजपूतों के एक कुल के रूप में स्वीकार्य कर लिया गया था। शुद्रों की स्थिति में सुधार हुआ, अब वे कृषक बन गये थे। अछूतों की संख्या में वृद्धि हुई। न्याय व्यवस्था मे वर्ण भेद बना हुआ था। ब्राह्ममण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की अग्नि से, वैश्य की जल से तथा शूद्र की परीक्षा विष से करने की बात कही जाती थी। गुप्त काल में प्रथम बार कायस्थ जाति का उल्लेख मिलता है। अग्रहार भूमि सभी करों से मुक्त होती थी। नारद ने दासों के 15 प्रकार बताए हैं साथ ही कहा है कि अपने स्वामी के पुत्रा को जन्म देने के बाद दासी स्वतंत्रा हो जाती थी।

कला एवं साहित्य

कला और सहित्य के विकास के दृष्टि से गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहा जाता है। गुप्तकालीन मंदिर नगर शैली में बने हैं। मंदिरों में गृर्भग्रह तथा शिखर का निर्माण होने लगा था। महत्वपूर्ण मंदिर थे- उदयगिरि का विष्णु मंदिर, एरण के बराह तथा विष्णु के मंदिर, भूमरा का शिवमंदिर, नाचनाकुठार का पार्वती मंदिर तथा देवगढ़ का दशावतार मंदिर। गुप्तकाल का सर्वोत्कृष्ठ मंदिर झांसी जिले में देवगढ़ का दशावतार मंदिर है। सारनाथ में धामेख स्तूप का निर्माण हुआ।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

गणित के क्षेत्रा में इस काल का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है- आर्यभटीय, इसके रचयिता आर्यभट्ट पाटलिपुत्रा के निवासी थे। ईसा की पांचवी सदी के आरंभ में दाशमिक पद्धति ज्ञात थी। आर्यभट्ट ने सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धूरी पर घूमती है। ब्रह्मगुप्त का ब्रह्म-सिद्धांत खगोलशास्त्रा का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। धन्वन्तरी तथा सुश्रुत इस युग के प्रख्यात वैद्य थे। नवनीतकम इस काल की सबसे प्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्रा की पुस्तक है।

धर्म

गुप्त काल में त्रिमूर्ति के अन्तर्गत ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश की पूजा आरंभ हुई। अब मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म का सामान्य लक्षण बन गया। इस काल मे ब्राह्मण धर्म का पुर्नउत्थान हुआ तथा पुरोहितों की अपेक्षा यज्ञों को प्रोत्साहन मिला। इस काल में हरिहर की मूर्तियां बनाई गईं। जिसमें शिव व विष्णु को एक साथ दर्शाया गया।

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