(आँनलाइन निःशुल्क कोचिंग) सामान्य अध्ययन पेपर - 1: भारतीय इतिहास "अध्याय - मौर्य प्रशासन"

आँनलाइन नि:शुल्क कोचिंग - पेपर 1 (सामान्य अध्ययन)

विश्वय - भारतीय इतिहास

अध्याय - मौर्य प्रशासन

मौर्य शासन व्यवस्था निरंकुश, कल्याणकारी तथा केन्द्रीभूत थी। यह व्यवस्था नौकरशाही तंत्रा पर आधारित थी। अर्थशाò में राज्य को ‘सात प्रकृतियों की समष्टि’ कहा गया है। इनमें सम्राट की स्थिति ‘कूटस्थानीय’ होती थी। अन्य अंग थे- आमात्य, जनपद, कोष, दुर्ग, बल तथा मित्रा। इस काल में राजतंत्रा का विकास हुआ। शीर्षस्थ अधिकारी के रूप में 18 तीर्थों का उल्लेख मिलता है जिन्हें 48 हजार पण वेतन मिलता था। ‘आमात्य’ प्रशासनिक कार्य में सम्मिलित उच्च प्रशासनिक अधिकारियों की सामान्य उपाधि था। ये वर्तमान के प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के सादृश्य थे। कर्मचारियों को वेतन नगद दिया जाता था। मेगस्थनीज के अनुसार सैन्य विभाग 30 सदस्यीय एक सर्वोच्च परिषद के नियंत्राण में कार्य करती थी जो 6 भागों में विभाजित था- जल सेना, यातायात, रसद विभाग, पैदल सैनिक, अश्वरोही सैनिक, हस्तिसेना तथा रथ सेना विभाग। सैन्य विभाग का सर्वोच्च अधिकारी सेनापति होता था। मौर्यों की गुप्तचर व्यवस्था अत्यंत कुशल थी जो ‘महामात्यपसर्प’ के अधीन कार्य करता था। गुप्तचरों को ‘गुढ़पुरूष’ कहा जाता था। एक ही स्थान पर रहकर गुप्तचरी का कार्य करने वाले ‘संस्था’ तथा भ्रमणकारी गुप्तचर ‘संचार’ कहलाते थे।

न्याय व्यवस्था

पाटलिपुत्रा में केंद्रीय सर्वोच्च न्यायालय था जिसका सर्वोच्च न्यायाधीश सम्राट होता था। ‘धर्मस्थीय न्यायालय’ दीवानी अदालत थी। इसमें आने वाले चोरी, डकैती के मामले ‘साहस’ कहे जाते थे। जिसमें राज्य तथा व्यक्ति के बीच विवाद, सरकारी कर्मचारियों से विवाद आदि मामलों की सुनवाई होती थी। 800 गांवों के लिए स्थानीय न्यायालय, 400 गावों के लिए द्रोणमुख तथा 10 गांवों के लिए संग्रहण की व्यवस्था थी।

प्रिय प्रतियोगियों, यह सामाग्री आई. ए. एस. (सामान्य अध्ययन) प्रांरभिक परीक्षा 2013 पेपर -1 ज्यादा जानकारी के लिये यहां क्लिक करें

प्रांतीय शासन

प्रांतों का शासन राजवंश के व्यक्तियों के द्वारा चलाया जाता था। जिसे ‘कुमार’ अथवा ‘आर्यपुत्रा’ कहा जाता था। ‘नगर’ का प्रशासनिक अधिकारी ‘नागरक’ होता था। गोप तथा स्थानिक उसकी सहायता करते थे।

मेगस्थनीज के अनुसार नगर प्रशासन 30 सदस्यों के मंडल द्वारा संचालित होता था। यह मंडल 6 समितियों में विभाजित होता था तथा प्रत्येक समिति में पांच सदस्य होते थे। प्रथम समिति उद्योग एवं शिल्प से, द्वितीय विदेशियों की देखभाल से, तृतीय जन्म-मृत्यु पंजीकरण से, चतुर्थ व्यापार से, पंचम वस्तुओं के उत्पादन स्थल के निरीक्षण से तथा षष्ठम् बिक्री कर से संबंधित होती थी।

सामाजिक व्यवस्था

कौटिल्य ने शूद्रों को ‘आर्य’ कहते हुए उन्हें मलेच्छों से भिन्न बतलाया है। शूद्रों को शिल्पकार और सेवावृत्ति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और व्यापार से अजीविका चलाने की अनुमति दी है। इन्हे दास बनाये जाने पर प्रतिबंध था। मेगास्थनीज ने भारतीय समाज को सात वर्गों मे विभाजित किया है- 1. दार्शनिक, 2. कृषक 3. अहीर, 4. शिल्पी, 5. सैनिक, 6. निरीक्षक, 7. सभासद। स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। उन्हे पुनर्विवाह तथा नियोग की अनुमति थी। घरेलु स्त्रियां ‘अनिष्कासिनी’ कहलाती थीं।

विवाह के प्रकार

  1. ब्रह्म विवाह- विवाह का सर्वोतम प्रकार, जिसके अन्तर्गत कन्या का पिता योग्य वर का चयन कर विधि पूर्वक कन्या प्रदान करता था। वर्तमान में प्रचलित है।

  2. दैव विवाह- विधिवत यज्ञ कर्म करते हुए ऋत्विज (विद्वान) को कन्या प्रदान करना।

  3. आर्य- वर से एक जोड़ी गाय और बैल लेकर कन्या सौंपना।

  4. प्रजापत्य- वर को कन्या प्रदान करते हुए पिता आदेश देता था कि दोनों साथ मिलकर सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्य का निर्वाह करें।

  5. आसुर- कन्या का पिता वर को धन के बदले कन्या सौंपता था।

  6. गन्धर्व- प्रेम-विवाह

  7. राक्षस- कन्या का अपहरण कर विवाह करना।

  8. पैशाच- वर छल करके कन्या के शरीर पर अधिकार कर लेता था।

आर्थिक व्यवस्था

मौर्यकाल में आर्थिक व्यवस्था का आधार कृषि था। इस काल में प्रथम बार दासों को कृषि कार्य में लगाया गया। कृषि, पशुपालन एवं व्यापार को अर्थशाò में सम्मिलित रूप से ‘वार्ता’ कहा गया है। जिस भूमि में बिना वर्षा के ही अच्छी खेती होती थी उसे अदेवमातृक कहते थे। ‘सीता’ सरकारी भूमि होती थी। भू-राजस्व उपज का 1/4 भाग से 1/6 भाग तक होता था। राज्य की ओर से सिंचाई का पूर्ण प्रबंध था जिसे सेतुबंध कहा जाता था। सिंचाई कर उपज का 1/5 से 1/3 भाग तक थी। सूत कातना तथा बुनना सबसे प्रचीन उद्योग था। सूती कपड़े के लिए काशी, बंग, मालवा आदि प्रसिद्ध थे। बंग मलमल के लिए प्रसिद्ध था। चीन से रेशम आयात किया जाता था। देशज वस्तुओं पर 4» तथा आयातित वस्तुओं पर 10» बिक्री लिया जाता था। मेगस्थनीज के अनुसार बिक्री कर न देने वालों को मृत्यु दंड दिया जाता था।

कला

मौर्य काल में प्रथम बार पत्थर की कलाकृतियां मिलती हैं। मौर्य कला दो रूपों में उपलब्ध है- एक के अन्तर्गत राजमहल तथा अशोक स्तंभों में आते हैं तथ दूसरी लोककला के रूप में परखम के यक्ष, दीदारगंज की चामर ग्रहिणी और वेसनगर की यक्षिणी मौजूद हैं। मौर्यकाल के सर्वाेत्कृष्ट नमूने अशोक के एकाश्म स्तंभ मानोलिथक हैं।

जो धम्म प्रचार के लिए विभिन्न स्थानों में स्थापित किये गये थे। ये चुनार के घूसर रंग के बलुआ पत्थर के बने हैं। स्तंभ सपाट हैं और एक ही पत्थर के बने हुए हैं इन पर चमकीला पालिश है।

<< मुख्य पृष्ठ पर वापस जाने के लिये यहां क्लिक करें