(आँनलाइन निःशुल्क कोचिंग) सामान्य अध्ययन पेपर - 1: भारतीय इतिहास "अध्याय - पुराऐतिहासिक संस्कृतियां"

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विश्वय - भारतीय इतिहास

अध्याय - पुराऐतिहासिक संस्कृतियां

अभिलेखः अभिलेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण साक्ष्य माने जाते हैं। सम्राट अशोक के अभिलेख सर्वाधिक प्राचीन माने जाते हैं। अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राăी लिपि में, पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान से प्राप्त अभिलेख अरमाइक एवं युनानी लिपि में है। मास्की, गुर्जरा तथा पानगुडइया के अभिलेख में अशोक के नाम का उल्लेख है। अभिलेखों में अशोक को प्रियदर्शी तथा देवताओं का प्रिय कहा गया है। अशोक के सभी अभिलेखों का विषय प्रशासनिक है परंतु रूम्नदेई अभिलेख का विषय आर्थिक है। गुप्त शासकों का इतिहास अधिकतर उनके अभिलेखों के आčाार पर लिखा गया है। प्रशस्ति अभिलेखों में प्रसिद्ध है, रूद्रदामन का गिरनार अभिलेख, खारवेल का हाथी गुफा अभिलेख, समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति, सातवाहन राजा पुलुमावी का नासिक गुफालेख आदि। यवन राजदूत हेलियोडोरस का बेसनगर से प्राप्त गरूड़ स्तंभ अभिलेख से द्वितीय सदी ई. पूर्व के मध्य भारत में भागवत čार्म के मौजूद होने का प्रमाण मिलता है। मध्य प्रदेश के एरण से प्राप्त अभिलेख से गुप्तकाल में सती प्रथा की जानकारी प्राप्त होती है। गुप्तकालीन उद्यागिरि स्थित वराह की मूर्ति पर हूण शासक तोरमाण का लेख अंकित है।

विदेशी अभिलेखः विदेशी अभिलेखों में सबसे पुराना अभिलेख 1400 ई.पू. का है तथा एशिया माइनर में ‘बोगजकोई’ से प्राप्त हुआ है। इसमें वरूण, मित्रा, इन्द्र तथा नासत्य देवताओं का नामोल्लेख है। पर्सिपोलिस तथा बेहिस्तून अभिलेखों से ज्ञात हुआ है कि ईरानी सम्राट द्वारा प्रथम ने 516 ई.पू. में सिन्धू नदी घाटी के क्षेत्रा पर अčिाकार कर लिया था। मिस्र में तेलुवल अमनों में मिęी की तख्तियां मिली हैं जिन पर बेबीलोनिया के कुछ शासकों के नाम उत्कीर्ण हैं जो ईरानी एवं भारत के आर्यशासकों के नाम जैसे हैं।

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मूर्तिकलाः मौर्यकाल में निर्मित विभिन्न मूर्तियां जैसे ग्वालियर की मणिभद्र की मूर्ति, धौली का हाथी, परखम का यक्ष तथा दीदारगंज की यक्षणी आदि प्रसिद्ध कलात्मक पुरातात्विक साक्ष्य है। गंधार कला तथा मथुरा कला के कनिष्क की सिर विहीन मूर्ति से तत्कालीन वň विन्यास की जानकारी प्राप्त होती है।

मुद्रायेः सन् 206 ई. से 300 ई. तक का भारतीय इतिहास का ज्ञान मुख्यतया मुद्राओं पर आधारित है प्राचीन भारत में सोना, चांदी, तांबा, सीसा तथा पोटीन के बने सिक्के प्रचलित थे। यद्यपि भारत में सिक्कों की प्राचीनता का स्तर आठवीं शती ई.पू. तक है परन्तु नियमित सिक्के छठी सदी ई.पू. से ही प्रचलन में आये। प्राचीनतम सिक्को को ‘आहत सिक्के’ कहा जाता है। साहित्य में इन्हें ‘कर्षापण’ कहा गया है। ये अधिकांशतः चांदी के हैं जिन पर ठप्पा लगाकर विविध आकृतियां उकेरी गई हैं। हिन्द-बैक्टिरीयाई शासकों ने सर्वप्रथम सिक्कों पर लेख अंकित करवाया। लेखों से संबंधित राजा के विषय में महत्वपूर्ण सूचना प्राप्त होती है।

सबसे अधिक तांबे, चांदी व सोने के सिक्के मोर्योत्तर युग के है। मुद्राओं की सहायता से संबंधित काल के धार्मिक विश्वास, कला, शासन पद्धति तथा विजय अभियान का ज्ञान प्राप्त होता है। कनिष्क की मुद्राओं से उसके बौद्ध धर्म के अनुयायी होने का पता चलता है। शक-पहलव युग की मुद्राओं से उनकी शासन पद्धति का ज्ञान होता है। स्कन्द्गुप्त की मुद्राओं में सम्मिश्रित स्वर्ण मिलता है जिससे तात्कालिक आंतरिक अशांति तथा कमजोर आर्थिक स्थिति का ज्ञान होता है। कुषाण काल की स्वर्ण मुद्रायें सर्वाधिक शुद्ध स्वर्ण मुद्रायें थीं। गुप्तकाल में सर्वाधिक सोन के सिक्के जारी किये गये।

स्मारक एवं भवनः तक्षशिला से प्राप्त स्मारकों से कुषाण वंश के शासकों तथा गंधारकालीन कला की जानकारी प्राप्त होती है। भारतीय इतिहास से संबंधित कुछ विदेशी स्मारक भी प्रकाश में आये हैं। जैसे- कंबोडिया के अंकोरवाट का मन्दिर, जावा का बोरोबुदूर मन्दिर आदि।

भूमिदान पत्राः ये प्रायः तांबे की चादरों पर उत्कीर्ण हैं तथा शासकों अथवा सामंतों द्वारा दिये दान अथवा निर्देश के लेखपत्रा है। दक्षिण भारत के चोल, चालुक्य, राष्टŞकूट, पाण्ड्य तथा पल्लव वंश का इतिहास लिखने में ये उपयोगी हैं।

चित्राकलाः चित्राकला तात्कालीन समाज की उन्नति तथा अवनति के द्योतक होते हैं।

साहित्यिक स्त्रोत:

वैदिक साहित्यः वैदिक साहित्य के अन्तर्गत वेद, वेदांग, उपनिषद्, पुराण, स्मृति, धर्मशास्त्रा आदि आते हैं। अथर्ववेद में अंग एवं मगध महाजनपद का उल्लेख है। आर्यों द्वारा अनार्यों की संस्कृतियों को अपनाने का भी उल्लेख है। मत्स्य पुराण में सातवाहन वंश के विषय में जानकारी मिलती है तथा मत्स्य पुराण सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक पुराण है। विष्णु पुराण से मौर्य वंश एवं गुप्त वंश की जानकारी प्राप्त होती है। वायु पुराण से शुंग एवं गुप्त वशं की विशेष जानकारी मिलती है। संस्कृत में लिखित बौद्ध ग्रन्थ महावस्तु तथा ललित विस्तार में महात्मा बुद्ध के जीवन चरित का उल्लेख है। द्व्यिावदान में परवर्ती मौर्य शासकों एवं शंगु राजा पुष्यमित्रा शंगु का उल्लेख मिलता है। परिशिष्ट पर्वन नामक जैन ग्रंथ से ज्ञात होता है कि मौर्य शासक चन्द्रगुप्त अपने जीवन के अंतिम काल में जैन धर्म को अपना लिया था एवं श्रवणबेलगोला में रहकर उपवास द्वारा प्राण त्याग दिया था। जैन ग्रंथ भगवती सूत्रा से तत्कालीन 16 महाजनपदों के अस्तित्व का पता चलता है। भद्रबाहुचरित् से चंद्रगुप्त मौर्य के राज्य काल की घटनाओं पर कुछ प्रकाश पड़ता है।

आरंभिक सैंधव सभ्यता के साक्ष्य:

भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का आरंभ:

भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के इतिहास का आरंभ पाषाण काल से हुआ। पाषाण काल को मानव सभ्यता का आरंभिक काल भी माना जाता है। इतिहास की जानकारी के साधनों के आधार पर ऐतिहासिक काल को तीन प्रकार के नाम दिये गये हैं- प्रागैतिहासिक काल, आद्य-ऐतिहासिक काल तथा ऐतिहासिक काल। ‘प्रागैतिहासिक काल’ में लेखन कला का विकास नहीं हुआ था। उस काल को जानकारी के स्त्रोत पाषाण उपकरण जैसे पुरातात्विक साक्ष्य हैं। ‘आद्य-ऐतिहासिक काल’ में लेखन कला का विकास तो हो गया था परंतु अभी तक अपठनीय हैं। सिंधु घाटी सभ्यता की कालावधि को ‘आद्य-ऐतिहासिक काल’ की संज्ञा दी जाती है। ‘ऐतिहासिक काल’ उस काल को कहते है जिसके लेख पठनीय हैं।

प्रागैतिहासिक संस्कृतियां
प्रागैतिहासिक काल को ‘पाषाण काल भी कहा जाता है क्योंकि उस काल के सभी पुरातात्विक साक्ष्य पाषाण निर्मित हैं। इसे तीन कालों में बांटा गया हैं- पुरापाषाण काल, मध्य पाषाण काल, नवपाषाण काल।

पुरापाषाण कालः पाषाण काल का आरंभिक काल पुरापाषाण काल के नाम से जाना जाता है। भारत में सर्वप्रथम 1863 ई. में एक विद्वान रार्बट ब्रुस फुट ने पल्लावरम् (मद्रास) से पाषाण निर्मित साक्ष्य प्राप्त किया था। 1935 ई. में डी. टेरा तथा पीटरसन ने शिवालिक पहाड़ियों से महत्वपूर्ण पाषाण उपकरण प्राप्त किये। पुरापाषाण काल को तीन भागों में विभाजित किया जाता है- निम्न-पुरापाषाण काल, मध्य-पाषाण काल, उत्तर-पुरापाषाण काल।

सैंधव काल में विदेशी व्यापार:

निम्न-पुरापाषाण कालः इस काल के पाषाण-उपकरण सोहन नदी घाटी (पाकिस्तान के पंजाब प्रांत), सिंगरौली घाटी (उ.प्र.), छोटानागपुर, नर्मदा घाटी तथा समस्त भारत (सिंध एवं केरल को छोड़कर) में पाये गये हैं। मुख्य उपकरण- शल्क, गंडासा, खंडक उपकरण, हस्तकुठार और चाटिकाश्म। नर्मदा घाटी में होमोइरेक्टस के अस्थि अवशेष प्राप्त हुए हैं। इस काल को सोहन संस्कृति, चापर-चापिंग पेबुल संस्कृति तथा हेडएक्स संस्कृति भी कहा जाता है। इस काल में उपकरणों के अतिरिक्त हाथी, जंगली भैंसा, दरियाई घोड़ा आदि के जीवाश्म भी पाये गये है। इस काल का मानव जानवरों का शिकार करता था तथा कन्दराओं में जानवरों की तरह रहा करता था। नर्मदा घाटी में हथनीर नामक ग्राम से एक मानव खोपड़ी भी मिली है, यह लगभग डेढ़ लाख वर्ष पुरानी है। यह भारत में अब तक प्राप्त मनुष्य का सबसे पुराना अवशेष है।

मध्य-पुरापाषाण कालः इस काल में सिंध (पाकिस्तान), केरल और नेपाल को छोड़कर भारत के प्रायः सभी प्रांतों में मनुष्यों के अस्तित्व के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। मुख्य स्थल- नेवासा (महाराष्ट), डीडवाना (राजस्थान), भीमवेटका, नर्मदा घाटी, पुरूलिया (प. बंगाल), तुंगभद्रा नदी घाटी। इस काल के मुख्य औजार थे- बेधक, खुरचनी, वेधनियां। भीमबेतका के 200 से अधिक चęानी गुफाओं से इस काल के लोगों के रहने के साक्ष्य मिले हैं। यह नर्थडरथाल मानवों का युग था।

उच्च-पुरापाषाण काल: इस काल के मुख्य औजार थे- तक्षणी, फलक, खुरचनी। निवास स्थान- रेनीगुंटा तथा कुरनूल (आंध्रप्रदेश), शोलापुर और बीजापुर। अस्थि उपकरण- अलंकृत छड़ें, मत्स्य भाला (हार्पून), नोकदार सुइयां। बेलनघाटी से शुद्ध फलक उद्योग के अवशेष प्राप्त हुए हैं। रेनीगुंटा से फलकों व तक्षणियों का एक विशाल संग्रह मिला है। कुरनूल से हěी के उपकरण मिले हैं। भीमबेतका की गुफाओं में चित्राकारी में हरे तथा गहरे लाल रंग का उपयोग हुआ है।

मध्य-पाषाण काल: मुख्य स्थल- बगोर, पंचपद्र घाटी एवं सांजत (राजस्थान), लंघनाज (गुजरात), अक्खज, बलमाना, विन्ध्य व सतपुरा के क्षेत्रा, आदमगढ़, भीमवेतका, वीरभानपुर (प. बंगाल), कर्नाटक के संगनकल्ल तथा उ.प्र. का सरायनाहर राय, लेखहीमा, मोरहाना पहाड़। मुख्य उपकरण- लघु पाषाण (माइŘोलिथ) से बने औजार जैसे ब्लेड, अर्धचन्द्राकार उपकरण, इकधार फलक वाले औजार, त्रिकोण, नवचंद्रकार तथा समलंब औजार, नुकीला औजार। इस काल के लोग अंत्येष्टि Řिया से परिचित थे। मानव अस्थियों के साथ कुŮो की भी अस्थियां मिली है। पंचमढ़ी में महादेव पहाड़ियों में मध्य पाषाण युग के शैलाश्रय मिले है।

नव-पाषाण काल: मुख्य स्थल- आदमगढ़, चिराˇद (बिहार), ब्लूचिस्तान, उ.प्र. का बेलन घाटी, बृजहोम व गुफ्फकराल (कश्मीर), मेहरगढ़, पं. बंगाल, प्रायद्वीपीय भारत, कोटदीजी आदि। मुख्य औजार- पालिश किये हुए पत्थर के औजार, पत्थर की कुल्हाड़ी, छोटे पत्थर के औजार व हěी के औजार। मुख्य विशेषताएं- कृषि कार्य का आरंभ, पशुपालन आरंभ, मृदभांड का निर्माण, कपड़ा बुनाई, आग से भोजन पकाना, मनुष्य स्थायी निवासी बन गया, खर एवं बांस की झोपड़ी बनाया जाने लगा, नाव का निर्माण। चिरांद और सेनआर नामक स्थान हěी के उपकरण के लिए प्रसिद्ध हैं। बेलनघाटी (उ.प्र.) से चावल का साक्ष्य, मेहरगढ़ (7000ई.पू.) से सर्वप्रथम कृषि का साक्ष्य, आदमगढ़ और बागोर (5000 ई. पू.) से प्राचीनतम पशुपालन के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। बुर्जहोम के निवासी मृदभांडों का प्रयोग करते थे।

ताम्र-पाषाण काल

मानव जीवन में सर्वप्रथम जिस घातु का प्रयोग किया गया, वह तांबा (लगभग पांच हजार ई.पू.) था। मुख्य ताम्र-पाषाण संस्कृतियां निम्न थे- अहाड़ एवं गिलुंद (द.पू. राजस्थान की बनास घाटी), कायथा (म.प्र.), गिलुद (अहमदनगर, महाराष्ट्र), मालवा संस्कृति। सभी ताम्र-पाषाण संस्कृतियों में मालवा मृदभांड सबसे उत्कृष्ट पाया गया है। मुख्य स्थल- प. बंगाल, पोडू राजार, ढ़िबी व वीरभूमि, महिषादल। बिहार में सेवार, चिरांद, ताराडींह तथा उ.प्र. में रैवराडीह व नौहान। इस संस्कृति के लोग ताम्र एवं पत्थर के छोटे-छोटे औजारों व हथियारों का प्रयोग करते थे, जैसे- फलक, फलकियां। जोरवे संस्कृति के मुख्य स्थल थे- जोरवे, नेवासा, दैमाबाद, चंदोली, सोनेगांव, इनामगांव, प्रकाश व नासिक। ‘अहाड़’ के पुराना नाम ‘ताम्ववती’ (यानि तांबे वाली जगह) था। यहां पर काले-लाल रंग के मृदभांडों का प्रयोग होता था। पक्की ईंटों का प्रयोग नहीं होता था। लोग पत्थर के घरों में रहते थे। सोथी संस्कृति (राजस्थान) घग्घर घाटी के क्षेत्रों में फैली थी।

केरल में पत्थर की चट्टानों में शव दफनाने के साक्ष्य मिले है। द. भारत के ब्रह्मगिरि, पिकलीहल, संगानाकालू, मास्की, हल्लूर आदि से ताम्र-पाषाण युगीन तथा लौह युगीन बस्तियों के साक्ष्य मिले हैं।

प्रागैतिहासिक संस्कृतियां:

प्रागैतिहासिक पुरातात्विक साक्ष्य:

चित्रित मृदभांडों का सबसे पहले ताम्र पाषाणीय लोगों ने ही प्रयोग किया। ताम्र पाषाण कालीन लोगों ने प्रायद्वीपीय भारत में सबसे पहले बड़े-बड़े गांव बसाये। इस संस्कृति के स्थलों से हल या फावड़ा नहीं मिला है। कृषि, खंतियों के सहारे करते थे। मालवा से प्राप्त चरखे-तकलियों से ज्ञात होता है कि लोग कताई-बुनाई से परिचित थे। इनामगांव से चूल्हों सहित कच्ची मिट्टी वाले गोलाकार घर मिले हैं। महाराष्ट्र में लोग मृतकों को फर्श के अंदर उत्तर-दक्षिण भाग में पूर्व-पश्चिम दिशा में दफनाते थे।

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