(आँनलाइन निःशुल्क कोचिंग) सामान्य अध्ययन पेपर - 1: भारतीय इतिहास "अध्याय - सिंधु घाटी सभ्यता"

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विश्वय - भारतीय इतिहास

अध्याय - सिंधु घाटी सभ्यता

सिंधु घाटी सभ्यता का अविर्भाव ताम्रपाषाणिक पृष्ठभूमि पर भरतीय महाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में हुआ। कालानुक्रम- पूर्व हड़प्पा सभ्यता (5500ई. पू.-2500 ई.पू.), आरंभिक हड़प्पा सभ्यता (3500 ई.पू.- 2500 ई.पू.), विकसित हड़प्पा सभ्यता(2500 ई.र्पू.-1750ई.पू.), उत्तर हड़प्पा सभ्यता (1750 ई. से आगे)। चाल्र्स मैस्सन ने 1826 ई. में हड़प्पा टीले का सर्वप्रथम उल्लेख किया तथा इसका रहस्योद्घाटन 1856 ई. में करांची और लाहौर के बीच पटरी बिछाने के दौरान हुआ जब विलियम ब्रन्टन तथा जान ब्रन्टन ने दो प्राचीन नगरों का पता लगाया।

आरंभिक काल:

सिंधु घाटी के किलीगुल मोहम्मद एवं मंुडीगाक, अफगानिस्तान व ब्लूचिस्तान में तीन हजार ई.पू. के मध्य में अनेक गांव बस गये जहां सैधंव सभ्यता के आरंभिक काल का बीजारोपण हुआ। आरंभिक काल की प्रमुख संस्कृतियां निम्न हैं-

‘कुल्ली संस्कृति’ के मुख्य स्थल मेही, रोजी व मजेरा दंब आदि हैं। यहां से प्राप्त मृद्भांड का रंग पांडु-गुलाबी है। यहां से अत्यधिक अलंकृत नारी मृण्मूर्तियां, तांबे का दर्पण, बेलनाकार छिद्रित पात्रा प्राप्त हुए हैं। ‘नाल संस्कृति’ का मुख्य स्थान दक्षिणी बलूचिस्तान था। यहां से मिट्टी के ईंटों के मकान, सांप दबाये गरूड़ के चित्रा वाला मुहर, बाट आदि प्राप्त हुए हैं। ‘झाब संस्कृति’ इसके मुख्य स्थल मुगल घुंडई, राना घुंडई, डाबरकोट, परिआनों घंुडई थे। यहां के मृदभांड पर लाल पर काले रंग के अलंकरण है। यहां से मिट्टी के ईंटों को मकान शवदाह-कर्म के संकेत व नारी मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। मुगल घंडई से किलेबंदी के साक्ष्य, पाषाण लिंग, वृषभ की मूर्ति आदि मिले हैं। ‘क्वेटा संस्कृति’ के मुख्य स्थल दंब सादात व किलीगुल मुहम्मद हैं। इसक संस्कृति पर ईरानी प्रभाव परिलक्षित होता है। यहां के मृद्भांड गुलाबी सफेद हैं जिस पर काले रंग का अलंकरण है।

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विकसित सैंधव सभ्यता:

‘भौगोलिक रूप-रेखा’ सैंधव सभ्यता की क्षेत्राकृति त्रिभुजाकार है तथा क्षेत्राफल 1299600 वर्ग किमी. है। इसकी उत्तरी सीमा जम्मू (मांडा), दक्षिणी सीम नर्मदा के मुहाने भगतराव, पूर्वी सीमा आलमगीरपुर (उ.प्र.) तथा पश्चिमी सीमा ब्लूचिस्तान के मकरान-सुत्कागेंडोर तक थी। यह उत्तर से दक्षिण तक 1100 किमी. तथा पूर्व से पश्चिम तक 1600 किमी. विस्तृत थी।

वर्तमान में पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिम भारत के क्षेत्रा सैंधव सभ्यता के प्रमुख क्षेत्रा थे। इस सभ्यता के अवशेष द. अफगानिस्तान, क्वेटा घाटी, मध्य तथा द. ब्लूचिस्तान, पंजाब-बहावलपूर तथा सिंधु क्षेत्रा में भी पाये गये हैं। सभ्यता की निम्नांकित विशेषताएं हैं।

समाज

सैंधव समाज में कृषक, शिल्पकार, मजदूर वर्ग आदि सामान्य जन थे तथा पुरोहित, अधिकारी, व्यापारी व चिकित्सक आदि विशिष्ट जन थे। सबसे प्रभावशाली वर्ग व्यापारियों का था। दस्तकारों व कुम्हारों का विशेष स्थान था। योद्धा वर्ग के अस्तित्व का साक्ष्य नहीं मिलता है।

यहां के लोग शांतिप्रिय थे। सैंधव समाज मातृप्रधान था। सामान्यतः लोग सूती वस्त्रा का उपयोग करते थे। पुरूष की प्रतिमाओं में ऊपरी भाग वस्त्रारहित दिखलाया गया है। पुरुष एवं स्त्राी आभूषणों का प्रचूर मात्रा में प्रयोग करते थे। समाज में नाई वर्ग का अस्तित्व था। सिंध तथा पंजाब के लोग गेहूं और जौ, राजस्थान के लोग जौ, गुजरात के रंगपुर के लोग चावल, बाजरा खाते थे।

अर्थव्यवस्था

अधिकांश लोगों का मुख्य पेशा कृषि था। कपास की खेती का आरंभ सर्वप्रथम उन्हीं लोगों ने किया। इसलिए यूनानियों ने इस क्षेत्रा को ‘सिंडोन’ नाम दिया । यही सिंडोन बाद में सिन्धु नाम से जाना जाने लगा। मुख्य कृषि उत्पाद थे - खजूर, सरसों, मटर, बाजरा, कपास, केला, तरबुज, नारियल, जौ, तिल, अनार, गेहुँ, आदि।

गेहूँ की दो किस्में ट्रिटिकम कम्पैक्टम तथा ट्रिटिक्स स्फीरोकोकम प्राप्त हुई हैं। मुख्य रूप से जौ और गेहुँ की खेती की जाती थी। खेती के लिए लकड़ी का हल तथा फसल कटाई के लिए पत्थर के हंसिया का प्रयोग होता था। चावल के अवशेष रंगपुर तथा लोथल से प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो से छः धारियों वाले जौ के साक्ष्य मिले हैं।

व्यापार-वाणिज्य

व्यापार मुख्यतः विनिमय पद्धति से किया जाता था तथा तौल की इकाई संभवतः 16 के अनुपात में थी। मुख्य व्यापारिक नगर अथवा बंदरगाह थे- भगतराव, मुंडीगाक, बालाकोट, सुत्कागेंडोर, सोत्काकोह, मालवान, प्रभासपाटन, डाबरकोट। मेसोपोटामियाई वर्णित शहर मेलुहा सिंध क्षेत्रा का ही प्राचीन नाम है। मेसोपोटामिया (ईराक) सैंधव के विनिमय स्थल ‘दिलमुन’ और ‘माकन’ थे। दिलमुन संभवतः बहरीन द्वीप था। माकन संभवतः ओमान था।

उद्योग

बर्तन बनाना अत्यंत महत्वपूर्ण उद्योग था। अन्य महत्वपूर्ण उद्योग-धंधे बुनाई, मूद्रा निर्माण, मनका निर्माण, ईंट निर्माण, धातु उद्योग, मूर्ति निर्माण थे। गलाई एवं ढ़लाई प्रौद्योगिकी प्रचलित थी तथा धातुओं से लघु मूर्तियां बनाने के लिए मोम-सांचा-विधि प्रचलित था। वे लौ-प्रौद्योगिकी से अनजान थे परंतु तांबा में टिन मिलाकर कांस्य बनाना जानते थे। मोहनजोदड़ो से ईंट-भट्टों के अवशेष मिले हैं। मिट्टी के बर्तन सादे हैं एवं उन पर लाल पट्टी के साथ-साथ काले रंग की चित्राकारी है तथा तराजू, मछलियां, वृक्ष आदि के चित्रा हैं।

कला तथा शिल्प

सबसे प्रसिद्ध कलाकृति- मोहनजोदड़ो से प्राप्त नृत्य की मूद्रा में नग्न स्त्राी की कांस्य प्रतिमा है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त दाढ़ी वाले व्यक्ति की मूर्ति भी प्रसिद्ध कलाकृति है। संभवतः यह पुजारी की प्रतिमा है। अधिकतर मनके सेलखड़ी के बने हैं। सोने एवं चांदी के मनके भी पाऐ गये हैं। मोहनजोदड़ो से गहने भी पाए गए हैं। चन्हूदड़ों एवं लोथल में मनके बनाने के कारखाने थे। सैंधव नगरों से सिंह के चित्राण का साक्ष्य नहीं मिला है। सभी नगरों से टेरीकोटा की मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई हैं जैसे- बंदर, कुत्ता, वृषभ आदि क मृण्मूर्तियां। स्वस्तिक चिन्ह सैंधव सभ्यता की देन मान जाता है। गाय की मृण्मूर्ति नहीं मिली है। सुरकोतड़ा तथा मोहनजोदड़ो से बैल की मृण्मूर्ति मिली है। मानवीय मृण्मूर्तियों में सबसे अधिक मृण्मूर्तियां स्त्रियों की हैं। हाथी दांत पर शिल्प कर्म के साक्ष्य मोहनजोदड़ो से मिले हैं। सैंधव सभ्यता के लोग सेलखड़ी, लालपत्थर, फीरोजा, गोमेद व अर्धकीमती पत्थर का उपयोग मनके बनाने में करते थे। ‘लिपि’ सिंधु लिपि में लगभग 64 मूल चिन्ह एवं 250 से 400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी के आयताकार महरों, तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिले हैं। यह लिपि भाव चित्रात्मक थी। लिपि का सबसे ज्यादा प्रचलित चिन्ह मछली का है। सैंधव भाषा अभी तक अपठनीय है। सैंधव लेख अधिकांशतः मुहरों पर ही मिले हैं। संभवतः इन मुहरों का उपयोग उन वस्तुओं की गांठ पर मुहर लगाने के लिए किया जाता था। जो निर्यात की जाती थीं। मुहरें बेलनाकार, वृत्ताकार, वर्गाकार तथा आयताकार रूप में हैं। अधिकांश  मुहरें सेलखड़ी की बनी हैं। विभिन्न स्थलों से दो हजार से ज्यादा मुहरें प्राप्त हुई है। मुहरों पर सर्वाधिक चित्रा एक सींग वाले सांड़ (वृषभ) की है। मुहरों पर मानवों एवं अर्द्धमानव के चित्रा भी हैं।

सैंधव नदी एवं उनके तट पर बसे नगर:

राजनीतिक संरचना

प्रत्येक नगर (धौलावीरा को छोड़कर) के पश्चिमी भाग में दुर्ग होता था जहां प्रशासनिक या धार्मिक क्रियाकलाप किया जाता था। संभवतः वहां का शासन वणिक वर्ग के हाथों में था। हंटर महोदय के अनुसार शासन जनतंत्रात्मक था तथा पिग्गाट के अनुसार वहां पुरोहित वर्ग का पाभाव था।

नगर-योजना

सैंधव सभ्यता की सबसे उत्कृष्ट विशेषता उसकी नगर योजना थी। उनके छः स्थलों को ही नगरों की संज्ञा दी जाती है- हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, चन्हूदड़ो, बनावली। नगरों की विशेषताएं-संरचना व बनावट में एकरूपता, दो भागों में विभाजित नगर संरचना(धौलावीरा को छोड़कर)। पश्चिमी भाग शासक वर्ग के लिए तथा पूर्वी भाग आमजन के लिए था। नगरों के सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी, जल निकास हेतु नालियों की व्यवस्था। नगर की सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं तथा मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाता था। सड़कें कच्ची थीं। मकानों में पक्की एवं बिना पकी ईंटों का प्रयोग होता था। मकान बहुमंजिले थे। लोथल को छोड़कर सभी नगरों के मकानों के मुख्य द्वार बगल की गलियों में खुलते थे।

मोहनजोदड़ो

पुरातात्विक साक्ष्य एवं विशेषताएं- महास्नानागार, अन्नागार व सभाकक्ष के अवशेष, सड़क को पक्का करने के साक्ष्य, राज मूद्रांक, तीन बंदरों वाला मनका, कांस्य नर्तकी की प्रतिमा, सिपी के स्केल, तीन मुख वाले पुरुष की ध्यान की मुद्रा वाली मुहर।

हड़प्पा- यह पकिस्तान के पंजाब राज्य के मोंटगोमरी जिले में रावी नदीं के बायंे तट पर स्थित है। दो टीला पूर्वी एवं पश्चिमी भाग में है। यहां अन्नागार गढ़ी के बाहर है जबकि मोहनजोदड़ो में यह गढ़ी के अंदर बना है। भवनों में अलंकार और विविधता का अभाव है। प्राप्त अवशेषों में अनाज कूटने के 18 वृत्ताकार चबूतरे, 12 कक्षों वाले अन्नगार, कब्रिस्तान आर-37, ताबूतों में शवाधान साक्ष्य। प्राप्त वस्तुओं में पीतल की इक्का गाड़ी, शंख का बना बैल, संाप को दबाए गरुड़ चित्रित मुद्रा, स्त्राी के गर्भ से निकलता पौधे के चित्रा, कागज का साक्ष्य, शव के साथ बर्तन व आभूषण, मजदूरों के आवास।

कालीबंगा

कालीबंगा का अर्थ काली चूड़ियां होती है। इसका निचला शहर भी वृर्गीकृत है। यहां से सार्वजनिक नाली के साक्ष्य नहीं मिले हैं।

विशेषताएं

विशाल दुर्ग-दीवार के साक्ष्य, लकड़ी की नाली के साक्ष्य, लकड़ी के हल के साथ बुआई का साक्ष्य।

प्राप्त वस्तुएं

बर्तन पर सूती कपड़े के छाप, सिलबट्टा, कांच व मिट्टी की चूड़ियां, तांबे की वृषभ आकृति, आयताकार 7 अग्नि वेदिकाएं।‘लोथल’ यहां दुर्ग और आवासीय नगर के लिए अलग-अलग टीले नहीं थे तथा मकानों का मुख्य दरवाजा सड़क की ओर खुलता था। नगर आयताकार है। लोथल सैंधव सभ्यता का मुख्य बंदरगाह था। रंगाई का कुण्ड बनाने का कारखाना, खिलौना नाव, मिट्टी के बर्तन पर चालाक लोमड़ी की कहानीनुमा चित्रांकन। ‘चन्हुदड़ो’ यहां से झूकर व झांगड़ संस्कृति के अवशेष मिले हैं तथा मनका निर्माण, गुड़िया तथा मुहर निर्माण का कारखाना मिला है। प्राप्त अवशेषों तथा वस्तुओं में वक्राकार ईंटों, ईंटों पर बिल्ली का पीछा करते कुत्ते के पंजों का निशान, अलंकृत हाथी, कंघा, उस्तरा, चार पहियों वाली गाड़ी, तीन घड़ियाल एवं दो मछलियों वाली मुद्रा। यहां से संस्कृति के तीन चरण पाये गये हैं। ‘धौलावीरा’ गुजरात में अवस्थित यह अत्यंत विशाल नगर है। नगर तीन भागों- गढ़ी, मध्य तथा निचले नगर में विभाजित था। यहां दुर्ग नगर के दक्षिणी भाग में था जबकि अन्य नगर पश्चिमी भाग में था। नगर की आकृति समानांतर चतुर्भुज की है। ‘बनवाली’ यहां से जल निकास के साक्ष्य नहीं मिले हैं। यहां से हड़प्पा पूर्व एवं हड़प्पा संास्कृतिक चरण के अवशेष मिले हैं। प्राप्त वस्तुओं में जौ, खिलौना हल, तांबे के वाण के नोक। ‘रंगपुर’ गुजरात स्थित रंगपुर से तीन संस्कृतियों प्राक् हड़प्पा, विकसित हड़प्पा व उत्तर हड़प्पा के साक्ष्य मिले हैं। यहां से धान के भूसी व ज्वार, बाजरा के साक्ष्य मिले हैं। ‘रोपड़’ पंजाब स्थित रोपड़ के मानव के साथ कुत्ते के शवाधान का साक्ष्य मिला है। यहां से प्रांरभिक ऐतिहासिक काल, ताम्र पाषाण काल तथा नवपाषाण काल के साक्ष्य मिले हैं। संभवतः आग लगने से इस नगर का विनाश हुआ था। ‘सुरकोटदा’ गुजरात स्थित सुरकोटदा से घोड़े के जीवाश्म, एण्टीमनी की छड़ व शापिंग कांप्लेक्स के साक्ष्य मिले हैं। ‘सत्कागेंडोर’ बंदरगाह था तथा विदेशी व्यापार का केन्द्र था। यहां से मनुष्य अस्थि राख से भरा बर्तन तथा तांबे की कुल्हाड़ी मिले हैं। ‘अन्य नगर’ कुणाल (हरियाणा) से चांदी के दो मुकुट मिले हंै तथा यह सरस्वती नदी के किनारे बसा था। संघोल (चंडीगढ़ के पास) से अग्नि कुंड के साक्ष्य मिले हैं।

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