अध्ययन सामग्री: भारत का भूगोल "बड़े बांध बनाम छोटे बांध"
अध्ययन सामग्री भारत का भूगोल
बड़े बांध बनाम छोटे बांध
बड़े बांधों की समस्याएँ
भारत में उचित प्रबन्ध तथा उपयोग के लिए बहुउद्देशीय परियोजनाएं जैसे -
भाखड़ा-नांगल, रिहन्द, हीराकुंड, नागार्जुन, मैट्टयर, कोयना, दामोदर घाटी परियोजना
आदि का विकास किया गया है । आज भी विभिन्न बड़ी बहुउद्देशीय परियोजनाओं जैसे टिहरी
बाँध परियोजना, सरदार सरोवर बाँध परियोजना तथा अलमट्टी बाँध परियोजना निर्माणाधीन
हैं, जिन पर पर्यावरणविदों ने आपत्ति जताई है ।इसके निम्न कारण हैं -
(1) जलमग्न क्षेत्रों में वृद्धि - बड़े जलाशयों के निर्माण द्वारा बड़े पैमाने पर
कृषि योग्य, आवास योग्य भूमि तथा वनाच्छादित भूमि जलमग्न हो जाती है ।
(2) भू-स्खलन में वृद्धि - नम-भूमि क्षेत्रफल के आस-पास भूस्खलन की अधिक सम्भावना
होती है ।
(3) भूकम्प की सम्भावना - जल के भार से बाँधों के नीचे स्थित भ्रंशों के सहारे
भूकम्प की सम्भावना बढ़ जाती है । सन् 1967 में कोयना के भूकम्प का कारण कोयना
जलाशय में जल-स्तर में वृद्धि को ही माना जाता है ।
(4) जलजनित बीमारियों की उत्पत्ति - विस्तृत जलाप्लावित क्षेत्रों में मलेरिया, हैजा
सहित अन्य जलजनित बीमारियों की उत्पत्ति का खतरा सदैव बना रहता है ।
(5) बाढ़ का खतरा - बाँधों के टूटने से निचले क्षेत्रों को बाढ़ का खतरा सदैव बना
रहता है।
(6) मृदा-अपरदन - बड़े बाँधों के निर्माण हेतु व्यापक रूप से वनों की कटाई से मृदा
अपरदन की सम्भावना बढ़ जाती है ।
(7) जन-स्थानान्तरण की समस्या - जलमग्न भूमि से विस्थापितों के पुनर्वास की समस्या
एक बड़ी समस्या है ।
छोटे बाँधों से लाभ
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में छोटे बाँध अधिक उपयोगी हैं, जिसके निम्न कारण हैं -
1. छोटे बाँधों की कम ऊँचाई के कारण जलाशय में जल की कम मात्रा से भूकम्प की कम
सम्भावना रहती है ।
2. जलाशय में कम जल से कम क्षेत्र जलाप्लावित होता है तथा कम लोगों को विस्थापित
करना पड़ता है ।
3. बाँध के टूटने से बाढ़ की तीव्रता कम होगी ।
4. छोटे बाँधों पर कम लागत आती है ।
5. इन्हें कम समय में निर्मित किया जा सकता है ।
6. इनके रख-रखाव में सुविधा होती है ।
7. एक ही नदी पर दूर-दूर स्थित कई छोटे बाँधों से उस नदी के जल-संसाधन का सम्यक एवं
समुचित प्रयोग समूची बेसिन में किया जा सकता है ।इस दृष्टि से आज छोटे बाँध बड़े
बाँधों की अपेक्षा अधिक उपयोगी हैं । इसी कारण पर्यावरणशास्त्री बड़े बाँधों के
निर्माण का विरोध कर रहे हैं; जैसे उत्तराखण्ड में टिहरी बाँध का विरोध सुन्दर लाल
बहुगुणा तथा मध्य प्रदेश में नर्मदा बाँध का विरोध मेधा पाटकर कर रही है ।
कमांड क्षेत्र विकास कार्यक्रम
किसी नदी से निकाली गई नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र ही उस नदी का कमाण्ड क्षेत्र
कहलाता है । कमांड क्षेत्र का सीमांकन नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र के आधार पर किया
जाता है । कमांड क्षेत्र विकास कार्यक्रम की शुरूआत पांचवीं पंचवर्षीय योजना के
दौरान 1974-75 में कुल 60 बड़ी और मध्यम परियोजनाओं के साथ की गई थी जबकि आज इसके
अन्तर्गत वर्ष 1999 के अन्त तक 22 राज्यों में 217 परियोजनाएँ चल रही थीं ।
जिसके अन्तर्गत लगभग 250 लाख हेक्टेयर कृषि-भूमि है । इस योजना को प्रारंभ करने के
तीन प्रमुख उद्देश्य हैं । प्रथमतः हरित क्रांति के बाद अंतर क्षेत्रीय कृषि और
आर्थिक विकास की विषमता में वृद्धि हुई है । इसे दूर करने के लिए पूर्वी भारत और
दक्षिणी भारत में हरित क्रांति के अवयवों का विसरण आवश्यक है। पूर्वी और दक्षिणी
भारत के सभी क्षेत्रों में हरित क्रांति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं थीं । अतः
क्षेत्र आधारित योजनाएं प्रारंभ की गयी ।
दूसरा अनेक राज्यों के खाद्य संकट के समाधान के लिए तेजी से कृषि विकास करने वाले
संभावित क्षेत्रों में कमांड क्षेत्र विकास नीति अपनाई गई । तीसरा भूमि और जल
संसाधन की उपलब्धता के बावजूद उसका समन्वित उपयोग नहीं हो रहा था ।
कमांड क्षेत्र विकास नीति के अंतर्गत कृषि के सम्भावित अनुकूल परिस्थितियों के
क्षेत्र को सीमांकित कर समन्वित रूप से कृषि विकास के कार्यक्रम अपनाये जाते हैं ।
अधिकतर सम्भावित अनुकूल क्षेत्र नदी घाटी का निम्न मैदानी क्षेत्र होता है । इसलिए
भारत के अधिकतर कमांड क्षेत्र भारत के निम्न मैदानी भागों में उपस्थित हैं । कमांड
क्षेत्र के सीमांकन में सम्भावित सिंचाई सुविधाओं को प्राथमिकता दी गयी है । उसी
प्राथमिकता के आधार पर कमांड क्षेत्र विकास प्राधिकरण का गठन किया गया है । इस
प्राधिकरण को विकास के निम्नलिखित दायित्व हैं -
1. प्राधिकरण के अंतर्गत आने वाली समस्त कृषि भूमि को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराना ।
2. जल प्रवाह और निकासी की व्यवस्था ।
3. वैसी कृषि भूमि का विकास करना जो कृषि योग्य है, किन्तु उस पर कृषि कार्य नहीं
हो रहा है ।
4. जलप्रवाह के लिए पक्के नाले का विकास जिससे की अगल-बगल की कृषि भूमि दलदली और
लवणीय न हो सके ।
5. भूमिगत और सतही जल का समन्वित विकास ।
6. अनुकूल फसल प्रारूप को विकसित करना ।
7. अनुकूल जल प्रबंध/प्रबंधन ।
8. कृषकों को समय-समय पर प्रशिक्षण और तकनीकी सुविधाएँ देना ।
9. कृषकों को नवीन बीज, रासायनिक उर्वरक, और कीटनाशक समय पर उपलब्ध कराना ।
10. सार्वजनिक भूमि पर सामुदायिक भवन, प्राथमिक विद्यालय एवं पुस्तकालय आदि का
निर्माण कराना ।
ऊपर वर्णित कार्यों के द्वारा कमांड क्षेत्र नियोजन न सिर्फ जल प्रबंध और कृषि
विकास में सहायक हो सकता है, वरन् यह ग्रामीण विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दे
सकता है ।
कमांड क्षेत्र के लाभ
कमांड क्षेत्र परियोजना से भारतीय अर्थव्यवस्था को निम्नलिखित लाभ हुए हैं -
1. हरित क्रांति के अवयवों का विसरण हुआ है ।
2. कमांड क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले अधिकतर राज्य खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भर
हो गये हैं।
3. कृषि विकास के कारण ग्रामीण विकास की प्रक्रिया तीव्र हुई है ।
4. प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में वृद्धि हुई है ।
5. फसलों का विविधिकरण हुआ है ।
6. औद्योगीकरण और नगरीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई है ।
7. प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि हुई है ।
8. आंतरिक क्षेत्रों में रोजगार वृद्धि हुई है ।
9. भारत के खाद्य उत्पादन में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है ।
10. भूमिगत जल-स्तर में सुधार हुआ है ।
11. मृदा संरक्षण और वानिकी की स्थिति में सुधार हुआ है ।
12. पेय जल की सुविधा में वृद्धि हुई है ।
कमांड क्षेत्र से होने वाले लाभों को किसी कमांड क्षेत्र के संदर्भ में भी देखा जा
सकता है। जैसे कावेरी कमांड क्षेत्र कावेरी नदी के निम्न घाटी क्षेत्र में अवस्थित
है । इसका भौगोलिक फैलाव तमिलनाडु और पांडिचेरी में है । यहाँ कावेरी नदी से निकाली
गई नहरों से सिंचाई होती है । मैट्टूर बाँध से नहरों को जल दिया जाता है । इस
सिंचाई सुविधा के पूर्व यह एक सूखा ग्रसित क्षेत्र था ।कमांड क्षेत्र नियोजन के
प्रारंभ होते ही यहाँ हरित क्रांति का दृश्य उत्पन्न हो गया है । दक्षिण भारत में
यह हरित-क्रांति का प्रथम चरण है ।
वर्तमान समय में इस प्रदेश में वर्ष में चावल की दो फसलें उत्पन्न की जाती हैं, जो
कुरूवाई (Summer Rice) और सांवा (Winter Rice) के स्थानीय नाम से जाना
जाता है । इसका परिणाम यह है कि यह कमांड क्षेत्र तमिलनाडु का अन्न भंडार बन गया है
। तमिलनाडु खाद्य पदार्थों में आत्म निर्भर हो गया है । इस प्रदेश में मोटे अनाज की
कृषि लगभग समाप्त हो चुकी है । चावल के अतिरिक्त तम्बाकू, कपास और गन्ना अन्य
प्रमुख फसलों के रूप में उभरा है । नकदी फसलों
(Cash Crops)
के आने से ग्रामीण विकास की प्रक्रिया तीव्र हुई है ।
अतः इस प्रदेश में सूती वस्त्र और चीनी उद्योग का विकास प्रारंभ हुआ है । नहरों
द्वारा स्वच्छ जल मिलने के कारण करीब 2500 इकाई रासायनिक उद्योगों का विकास हुआ है
। तमिलनाडु में पेयजल एक गंभीर संकट था लेकिन नहरों द्वारा बराबर जल छोड़ने के कारण
भूमिगत जल स्तर ऊपर उठा है और इस प्रदेश की पेय जल समस्या का लगभग समाधान हो गया है
। इस प्रकार तमिलनाडु का यह प्रदेश ग्रामीण विकास, कृषि विकास और औद्योगिक विकास का
एक महत्वपूर्ण क्षेत्र बन चुका है।लगभग यही स्थिति सभी कमांड क्षेत्रों में है ।
इंदिरा गाँधी कमांड क्षेत्र के विकसित होने से राजस्थान की खाद्य समस्या का
समाधान हुआ है । बिहार और पश्चिम बंगाल भी कमांड क्षेत्र विकसित होने के कारण ही
खाद्य पदार्थों में आत्म निर्भर हुआ है । दक्षिण-पश्चिम बिहार जो सोन नदी का
क्षेत्र है, के कृषि उत्पादन वृद्धि में ‘स्काडा’ (SCADA-Sone Command Area
Development Authority) का काफी योगदान है ।
समस्याएँ
कमांड क्षेत्र कृषि विकास की नीति में निम्नलिखित समस्यायें भी उत्पन्न हुई हैं
-
1. सबसे प्रमुख समस्या, इसके अंतर्गत कुछ क्षेत्र के विकसित होने से अंतर्राज्यीय
और अंतःराज्यीय आर्थिक और कृषि विषमताओं में वृद्धि हुई है । जिससे आर्थिक तनाव में
वृद्धि हुई है ।
2. कमांड क्षेत्र नीति ही अंतरराज्यीय जल विवाद का प्रमुख कारण है । तमिलनाडु और
कर्नाटक के बीच जल विवाद का प्रमुख कारण कावेरी कमांड क्षेत्र है । इंदिरा गाँधी
नहर को लेकर पंजाब और राजस्थान के बीच तथा रिहन्द परियोजना को लेकर मध्यप्रदेश और
उत्तर प्रदेश के बीच तनाव बढ़ रहे हैं । दामोदर परियोजना और मयूराक्षी को लेकर
बिहार और पश्चिम बंगाल के बीच तथा नर्मदा योजना को लेकर मध्यप्रदेश और गुजरात के
बीच तनाव की पूरी संभावना है ।
3. कमांड क्षेत्र परियोजना से भूमि प्रदूषण तथा जल प्रदूषण की समस्या भी उत्पन्न
हुई है। कावेरी कमांड क्षेत्र में रासायनिक कारखानों के कारण जल प्रदूषण की समस्या
उत्पन्न हुई है । कोसी कमांड क्षेत्र में नहर की तली पर मलबा जमा होने से भूमि
प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई है । इंदिरा गाँधी कमांड क्षेत्र में मरुस्थलीय गढ्ढ़ों
में स्थायी जल जमाव के कारण मलेरिया जैसी बीमारी उत्पन्न होने लगी है।
पुनः कृषकों द्वारा लगातार चावल और गेहूँ जैसी फसलों को प्राथमिकता दिये जाने
के कारण भी भूमि प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हो गयी है और नाइट्रोजेनस खाद और
कीटनाशक का अधिक प्रयोग किया जाना भी इस समस्या का महत्वपूर्ण कारण है ।
4. भूमि सुधार के बिना कृषि सुविधाओं को विकसित किये जाने के कारण भूमिहीन कृषक और
बड़े कृषकों के बीच तनाव उत्पन्न हो गये हैं ।
5. कभी-कभी नहरों में अधिक जल छोड़ने से बाढ़ की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है ।
पठारी भारत के कमांड क्षेत्र में यह एक गंभीर समस्या के रूप में उभरकर आया है । अतः
ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि कमांड क्षेत्र विकास नीति से प्राप्त लाभ के साथ-साथ
कई जटिलताएँ और समस्याएं भी उभरी हैं । अंतरराज्यीय जल विवाद सबसे गंभीर समस्या है,
क्योंकि यह संघीय व्यवस्था के लिए संकट उत्पन्न कर सकती है ।अतः कृषि और जल प्रबंध
की नीति में परिवर्तन की जरूरत है । अतः यह आवश्यक है कि -
1. जल को राज्य सूची के बदले केन्द्रीय सूची या समवर्ती सूची में रखा जाए । इससे जल
का महत्व राष्ट्रीय संसाधनों के रूप में होगा और अंतरराज्यीय विवादों में की आयेगी
।
2. जल प्रबंध की नीति में परिवर्तन की जरूरत है । इसके लिए नदी-द्रोणी नियोजन और जल
क्षेत्र प्रबंधन की जरूरत है । इन नीतियों को अपनाने से उपरी बेसिन के राज्य भी
लाभान्वित हो पाएँगे इस प्रकार राज्य विवाद में स्वतः कमी आयेगी ।
3. भूमि और जल प्रबंध की नीति के साथ-साथ भूमि सुधार भी आवश्यक ।
4. कृषि, फसल प्रारूप और उद्योगों के लिए विकास की समन्वित टिकाऊ नीति बनायी जाए ।
इससे पारिस्थतिक असंतुलन की समस्या नहीं होगी ।
5. भारत को कृषि जलवायु प्रदेशों में विभाजित किया जा चुका है । अतः आवश्यक है कि
उसी प्रादेशीकरण के अनुरूप संपूर्ण भारत में कृषि विकास की नीति अपनायी जाए । उपर
वर्णित संशोधनों या कार्यों के द्वारा अंतर प्रादेशिक आर्थिक विषमता और अंतर
राज्यीय जल विवादों को भी कम किया जा सकता है । इस प्रकार सिंचाई क्षमता में
पर्याप्त सुधार लाते हुए सिंचित खेती से सम्बद्ध सभी कार्यों में समन्वय करके
सिंचाई सुविधा वाले क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ ग्रामीण
विकास प्रारूप को भी त्वरित किया जा सकता है ।