अध्ययन सामग्री: भारत का भूगोल "भारत में मृदा-समस्याएँ"


   अध्ययन सामग्री: भारत का भूगोल


भारत में मृदा-समस्याएँ

मिट्टी की प्राकृतिक क्षमता अथवा उर्वरता ही भू-दक्षता (Land Capability)  या ‘भू-क्षमता’ Land Efficiency)   कहलाती है । मिट्टी का सीमा से अधिक प्रयोग करने पर इसके प्राकृतिक क्षमता में हृास होता है, जिससे विभिन्न मृदा समस्याओं का जन्म होता है, जो मानव अस्तित्व के लिए एक चिन्ता का विषय है। भारतीय कृषि आयोग के अनुसार भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 53.19 प्रतिशत क्षेत्र अपरदन की समस्या से ग्रसित है जिसमें जल तथा वायु अपरदन से प्रभावित भूमि 14.12 करोड़ हेक्टेयर एवं अन्य कारणों से अपरदित क्षेत्र 3.37 करोड़ हेक्टेयर है

भारत में मृदा-समस्याएँ

1. मृदा अपरदन (Soil Erosion)

(क) प्राकृतिक कारणों से अपरदन,
(ख) मानवीय कारणों से अपरदन ।

(क) प्राकृतिक कारणों से अपरदन -

1. जलीय अपरदन 2. सागरीय अपरदन
3. वायु अपरदन 4. हिमानी अपरदन
5. निर्वनीकरण 6. जुताई

(ख) मानवीय कारणों से अपरदन -

2. मृदा प्रदूषण -

1. ऊसरीकरण 2. बंजर भूमि
3. नम भूमि 4. अम्लीकरण
5. रिले-क्रापिंग 6. रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग
7. नगरीय तथा औद्योगिक कचरा

मृदा अपरदन के कारक

1. जलीय अपरदन (Fluvial Erosion)

जल द्वारा मिट्टी के घुलनशील पदार्थों को घुला कर बहा ले जाना घोलीकरण (Solution) या जलकृत अपरदन (Corrosion)  कहलाता है । जल की चोट से मिट्टी का स्थानान्तरण जलगति क्रिया (Hydraulic Action)  कहलाता है । जल कई रूपों में मृदा-अपरदन का कार्य करता है। इनमें प्रमुख है - चादर अपरदन, नलिका अपरदन, अवनालिका अपरदन आदि।

2. सागरीय अपरदन -

सागर की लहरें तट से टकराकर चट्टानों का अपक्षय करती हैं । सागरीय जल के विभिन्न विक्षोभों में सर्वाधिक अपरदन लहरों (Waves)  द्वारा होती है । ज्वार; (Tide) से भी अपरदन होता है । समुद्र की सतह पर लहरों द्वारा तय की गयी दूरी फेच (Fetch) कहलाती है । फेच जितना अधिक लम्बा होता है, समुद्री अपरदन उतना अधिक तीव्र होता है । भारत में लहरों द्वारा सर्वाधिक अपरदन केरल के पश्चिमी तट तथा महराष्ट्र तट पर होता है । समुद्री अपरदन से बचने के लिए केरल सरकार ने तट के सहारे ग्रेनाइट दीवाल  (Granite Wall)  का निर्माण कराया है ।

3. वायु अपरदन - (Wind Erosion) -

तीव्र पवनों के प्रभाव से सूक्ष्म कणों का उड़ाया जाना अपवाहन ;(Dflation)  कहलाता है। मृदा-अपरदन चक्रवातों द्वारा भी होता है, जिसमें चक्रवात मिट्टी को उड़ाकर छोटे गर्त बना देते हैं, जिन्हें धूलि का कटोरा ;(Dust Bowl)  कहा जाता है । भारत में मई तथा जून माह में रबी की फसलों की कटाई के पश्चात् सतलज-गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदान की उपजाऊ मिट्टी का भी पवन द्वारा पर्याप्त मात्रा में अपरदन होता है

 4. हिमानी अपरदन (Glacial Erosion) -.

हिमालय में हिमरेखा के नीचे बहने वाले बर्फ तथा जल को हिमनद;(Glacier)  कहा जाता है। ये चट्टानों तथा मिट्टी को काटकर निचली घाटी में जमा कर देते हैं, जिन्हें हिमोढ(Moraine)  कहा जाता है ।

5. निर्वनीकरण (Deforestation)

निर्वनीकरण द्वारा मृदा-अपरदन में वृद्धि होती है, क्योंकि वन मिट्टी को अपरदित होने से निम्न रूपों में बचाते हैं -
1. जड़ों द्वारा अपरदन पर नियंत्रण कर,
2. पत्तियों द्वारा बूँदाघात अपरदन ;(Splash erosion)  के नियंत्रण द्वारा तथा
3. भूमि पर गिरी पत्तियों द्वारा धरातलीय प्रवाह की गति में कमी तथा अपवाहन (Deflation)   की दर को कम करके । निर्वनीकरण के द्वारा देश में सर्वाधिक मृदा-अपरदन पश्चिमी घाट क्षेत्र में, शिवालिक पर्वत वाले क्षेत्र में तथा उत्तरी-पूर्वी राज्यों में होता है । उत्तरी-पूर्वी राज्यों में झूम खेती (Shifting Cultivation)  के कारण भी मृदा-अपरदन की दर अधिक है ।

6. जुताई

ढाल के अनुद्धैर्य जुताई से वर्षा का जल तेजी से नलिका तथा अवनलिका का विकास कर उपजाऊ मिट्टी बहा ले जाता है ।

मृदा अपरदन के प्रकार (Kinds of Soil Erosion)

 (a)चादर अपरदन(Sheet Erosion)

वर्षा की बूदों के मिट्टी पर आघात से सतह पर छोटे-छोटे गड्ढे बन जाते हैं । इन गड्ढ़ों को बूँदाघात क्रेटर (Splash Crater)  तथा इन गड्ढ़ों द्वारा मृदा अपरदन को बूँदाघात अपरदन (Splash Erosion) कहा जाता है । जब वर्षा का जल धरातल की मिट्टी को संतृप्त कर सतह पर प्रवाहित होने लगता है तो उसे धरातलीय-प्रवाह (Surface Run-off)  कहा जाता है । और जब यह प्रवाह समतल ढ़ाल पर चादर के रूप में होता है तब इसे चादर अपरदन (Sheet Erosion)  कहा जाता है । इस प्रवाह से लगभग एक करोड़ एकड़ क्षेत्र प्रभावित होता है, जिसके फलस्वरूप प्रतिवर्ष देश की औसतन दो इंच मोटी परत अपरदित हो जाती है । चादर अपरदन द्वारा सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र सतलज-गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदान तथा पश्चिमी एवं पूर्वी तटवर्ती मेदान हैं ।

(b) नलिका अपरदन (Rill Erosion)

ढ़ाल की तेजी तथा जल की मात्रा के अधिक होने से चादर रूप में बहता हुआ जल छोटी-छोटी अंगुली के आकार की नलिकाएँ (Fingertip Streams) विकसित करता है, जिन्हें ‘नलिका’ (Rill)
कहा जाता है ।

(c)अवनलिका अपरदन (Gully Erosion)

नलिकाएं आगे चलकर और अधिक गहरी तथा चैड़ी हो जाती है, जिन्हें अवनलिका (Gully)  कहा जाता है

(d)बीहड़ीकरण (Revination)

मुख्य नदियों के दोनों कगारों के सहारे ऊँची-नीची स्थलाकृति विकसित हो जाती है, जिसे बीहड़ (Ravines)  कहा जाता है । इसी क्रिया को बीहड़ीकरण (Ravination)  कहा जाता है । भारत के सर्वाधिक गहरे बीहड़ चम्बल घाटी में हैं, जो 40-60 मीटर गहरे हैं । इसके अतिरिक्त बेतवा, केन, धसान, यमुना नर्मदा ताप्ती, माही तथा साबरमती आदि नदियों ने भी अपनी घाटियों में बीहड़ों का निर्माण किया है ।

(e) मृदा सर्पण (Soil Creep)

अधिक ढाल के कारण गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से नीचे की ओर मृदा के खिसकने को मृदा सर्पण (Soil Creep) कहते हैं ।

(f) पंकवाह (Earth Flow)

गीली मिट्टी का धारा के रूप में ढ़ाल के सहारे प्रवाहित होना पंकवाह कहलाता है । भारत में ये घटनाएँ सामान्यतः नदियों के किनारे घटित होती हैं ।

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