अध्ययन सामग्री: भारत का भूगोल "मृदा अपरदन के कारण "
अध्ययन सामग्री:भारत का भूगोल
मृदा अपरदन के कारण
मृदा अपरदन के कारण
1.निर्वनीकरण -
वन पानी के बहाव की तीव्रता तथा वायु की गति को कम करता है । वह मिट्टी को जड़ों से जकड़कर रखता है । किंतु वनों के अविवेकपूर्ण विदोहन तथा कटाई अपरदन की तीव्रता बढ़ाती है ।
2.अनियंत्रित पशुचारण-
इससे मिट्टी का गठन ढीला हो जाता है । फलतः जलीय तथा वायु-अपरदन तीव्र होता है ।
3- कृषि का अवैज्ञानिक ढंग -
अत्यधिक जुताई, गहन कृषि, फसल चक्र की अनुपस्थिति आदि कारणों से मिट्टी अपना प्राकृतिक गुण खो देती है, जिससे उसका विघटन होने लगता है । यह जलीय तथा वायु अपरदन को सुगम बना देती है ।
4- भूमि की ढ़ाल -
भूमि का तीव्र ढ़ाल गुरुत्त्वाकर्षणीय प्रभाव में मृदा को नीचे लाने में सहायक होती है ।
5- अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि
6- झूमिंग कृषि प्रणाली -
इससे वनों का विनाश होता है तथा मिट्टी के पोषक तत्त्व बह जाते हैं।
7- नदी बहाव की गति -
नदी की गति यदि दोगुनी हो जाए तो अपरदन क्षमता चार गुनी तथा वहन क्षमता 64 गुनी बढ़ जाती है ।
8- नदियों द्वारा मार्ग परिवर्तन
- नदी मार्ग परिवर्तन कर उपजाऊ भूमि को जलमग्न कर देती है।
मृदा अपरदन का प्रभाव (राष्ट्रीय योजना समिति के अनुसार)
1- भूमि की उर्वराशक्ति का नष्ट होगा,
2- जोतदार भूमि में कमी,
3- आकस्मिक तथा भयंकर बाढ़ का प्रकोप,
4- शुष्क मरूभूमि का विस्तार,
5- बीहड़ तथा बंजर भूमि में वृद्धि, जो असमाजिक तत्त्वों का शरणस्थल बनता है ।
6- स्थानीय जलवायु पर विपरीत प्रभाव,
7- नदियों का मार्ग परिवर्तन,
8- भू-जलस्तर का नीचे जाना, फलस्वरूप पेयजल तथा सिंचाई के लिए जल की कमी,
9- खाद्यान्न उत्पादन में कमी, फलस्वरूप आयात में वृद्धि, भुगतान संतुलन का बिगड़ना आदि।
मृदा संरक्षण (Soil Conservation)
मिट्टी एक अमूल्य प्राकृतिक संसाधन है, जिस पर संपूर्ण प्राणि जगत निर्भर है । भारत जैसे कृषि प्रधान देश में; जहाँ मृदा अपरदन की गंभीर समस्या है, मृदा संरक्षण एक अनिवार्य एवं अत्याज्य कार्य है। मृदा संरक्षण एक प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत न केवल मृदा की गुणवत्ता को बनाये रखने का प्रयास किया जाता है, बल्कि उसमें सुधार की भी कोशिश की जाती है ।
मृदा संरक्षण की दो विधियाँ हैं - क) जैवीय विधि ब) यांत्रिक विधि ।
जैवीय विधि -
(क) फसल सम्बन्धी (ख) वनरोपण सम्बन्धी ।
(क) फसल संबंधी -
1. फसल चक्रल - अपरदन को कम करने वाली फसलों का अन्य के साथ चक्रीकरण कर अपरदन को रोका जा सकता है । इससे मृदा की उर्वरता भी बढ़ती है ।
2. पट्टीदार खेती - यह जल-प्रवाह के वेग को कम कर अपरदन को रोकती है ।
3. सीढ़ीनुमा खेती - इससे ढ़ाल में कमी लाकर अपरदन को रोका जाता है । इससे पर्वतीय भूमि को खेती के उपयोग में लाया जाता है ।
4. मल्विंग पद्धति - खेती में फसल अवशेष की 10-15 से.मी. पतली परत बिछाकर अपरदन तथा वाष्पीकरण को रोका जा सकता है । इस पद्धति से रबी की फसल में 30 प्रतिशत तक की वृद्धि की जा सकती है।
5. रक्षक मेखला - खेतों के किनारे पवन की दिशा में समकोण पर पंक्तियों में वृक्ष तथा झाड़ी लगाकर पवन द्वारा होने वाले अपरदन को रोका जा सकता है ।
6. खादों का प्रयोग - गोबर की खाद, सनई अथवा ढँचा की हरी खाद एवं अन्य जीवांश खादों के प्रयोग से भू-क्षरण में कमी आती है ।
(ख) वन रोपण संबंधी पद्धति -
वन मृदा अपरदन को रोकने में काफी सहायक होते हैं । इसके तहत दो कार्य आते हैं -
प्रथम, नवीन क्षेत्रों में वनों का विकास करना, जिससे मिट्टी की उर्वरता एवं गठन बढ़ती है। इससे वर्षा जल एवं वायु से होने वाले अपरदन में कमी आती है ।
द्वितीय, जहाँ वनों का अत्यधिक विदोहन, अत्यधिक पशुचारण एवं सतह ढलवा हो, वहाँ नये वन लगाना ।
(ग) यांत्रिकी पद्धति
यह पद्धति अपेक्षाकृत महंगी है पर प्रभावकारी भी ।
1/ कंटूर जोत पद्धति - इसमें ढ़ाल वाली दिशा के समकोण दिशा में खेतों को जोता जाता है, ताकि ढ़ालों से बहने वाला जल मृदा को न काट सके ।
2/ वेदिका का निर्माण कर अत्यधिक ढ़ाल वाले स्थान पर अपरदन को रोकना ।
3/ अवनालिका नियंत्रण - (क) अपवाह जल रोककर (ख) वनस्पति आवरण में वृद्धि कर तथा (ग) अपवाह के लिए नये रास्ते बनाकर ।
4/ ढ़ालों पर अवरोध खड़ा कर ।
मृदा संरक्षण हेतु सरकारी प्रयास
भारत में प्रथम पंचवर्षीय योजना के प्रारंभ के साथ ही इस दिशा में अनेक कदम उठाए जाने लगे थे । सुदूर संवेदन तकनीकी की मदद से समस्याग्रस्त क्षेत्र की पहचान की जा रही है ।
विभिन्न क्षेत्रों में वानिकीकरण की राष्ट्रव्यापी शुरूआत की गई है । इसमें सामाजिक वानिकी भी शामिल है ।
राजस्थान में इंदिरा गाँधी नहर परियोजना, मरू विकास कार्यक्रम तथा मरूथल वृक्षारोपण अनुसंधान केन्द्र आदि की शुरूआत की गई है।
शत-प्रतिशत केन्द्रीय सहायता से झूम खेती नियंत्रण कार्यक्रम पूर्वोत्तर राज्यों, आन्ध्र प्रदेश तथा उड़ीसा में शुरू किया गया है । इसके अलावा भी मृदा संरक्षण हेतु प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से कई कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं।
मृदा प्रदूषण (Soil Pollution)
मिट्टी की भौतिक तथा रासायनिक विशेषताओं में अपने ही स्थान पर परिवर्तन या हृस होना ही मृदा-प्रदूषण है । इसमें मिट्टी में गुणात्त्मक हृस होता है, जिसे मृदा अवनयन Soil Degradation कहा जाता है। इसके निम्न रूप हैं-
1 ऊसरीकरण
सामान्य शब्दों में जिस मिट्टी में नमक के कणों की परत मिट्टी की ऊपरी सतह पर मिलती है उसे ऊसर कहा जाता है । ऊसर भूमि में क्षारीयता (Alkolimity) अधिक होती है । भारत में ऊसरीकरण मुख्य रूप से दो कारणों से हो रहा है:-
अ. प्रथम कारण प्राकृतिक है, जिसमें भूमिगत जल स्तर ऊँचा होता है । उच्च भूमिगत जल स्तर वाले भागों में अधिक ताप के कारण वाष्पीकरण होता है, जिसके फलस्वरूप नमक के कण केशिका क्रिया Capillary Action) द्वारा ऊपर आकर जमा हो जाते हैं । इस प्रकार के ऊसर के टुकड़े समूचे उत्तरी मैदान के पट्टियों में मिलते हैं । दूसरा क्षेत्र गुजरात है, जहाँ अधिक तापमान के कारण वाष्पीकरण अधिक होता है । इससे नमक ऊपरी सतह पर आ जाता है । तीसरा क्षेत्र तटवर्ती राज्यों का है, जहाँ समुद्र का नमकीन जल भूमिगत जलभरों ;ळतवनदक ।Ground Aquifers)में प्रविष्ट हो जाता है । इसका नमक पुनः केशिक क्रिया द्वारा धरातल पर जमा हो जाता है ।
ब. लवणीकरण का दूसरा कारण मानवीय अर्थात् नहरों द्वारा सिंचाई है । नहरों के जल के रिसाव से या नहरों के कटने से, भूमिगत जल स्तर ऊँचा हो जाता है, जिससे केशिका क्रिया द्वारा नमक के कण धरातल पर जमा हो जाते हैं । भारत में नहरों द्वारा सिंचित सभी क्षेत्रों में मिट्टी में लवणीकरण की मात्रा में वृद्धि हुई है ।
नियंत्रण के उपाय -
सन् 1876 में उत्तरी-पश्चिमी प्रान्त की सरकार ने रेह आयोग ;(Reh Commission) की स्थापना की थी जिसने ऊसरीकरण का कारण बड़ी नहरों के निर्माण को बताया था । 1972 में यह विषय सिंचाई आयोग द्वारा पुनः उठाया गया, जिसने दो कदम सुझाये थे -
अ. उचित जल-प्रवाह व्यवस्था तथा
ब. नहरों द्वारा जल रिसाव पर नियंत्रण ।
सन् 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग के अनुमान से भारत में जलप्लावित तथा लवणीकृत क्षेत्र 1.3 करोड़ हेक्टेयर था । सन् 1988 में योजना आयोग द्वारा एक कार्यदल नियुक्त किया गया, जिसका उद्देश्य आठवीं योजनावधि में ऐसी भूमि के बारे में प्रस्ताव तैयार करना था । इस कार्यदल ने प्रस्तुत किया कि भारत में जलप्लावन तथा लवणीकरण से प्रभावित क्षेत्र प्रतिवर्ष 9 लाख हेक्टेयर की दर से बढ़ रहा है । 1991 में कुल प्रभावित क्षेत्र 20.3 लाख हेक्टेयर था ।
2- बंजर भूमि
जिस भूमि का कोई आर्थिक प्रयोग न हो, उसे बंजर भूमि कहा जाता है । इसके निम्न कारण होते हैं -
1. दोषपूर्ण भूमि एवं जल प्रबंधन ।
2. निर्वनीकरण ।
3. अति पशुचारण, तथा
4. अति कृषि ।
3- नम भूमि
नम भूमि स्थलीय तथा जलीय परिस्थितिक तंत्र के मध्य वह संक्रमणीय पेटी होती है जहाँ या तो भूमिगत जलस्तर अत्यधिक ऊँचा या सतह के पास होता है या भूमि पूर्णकालिक या अल्पकालिक रूप से जलमग्न होती है । उदाहरण के लिए भारत का पश्चिमी एवं पूर्वी तटवर्ती भाग; जहाँ लैगून, झील, डेल्टा तथा तट रेखा के सहारे नम-भूमि क्षेत्र है । इसके अतिरिक्त देश के आतंरिक भागों में झीलों के पास का भाग तथा बाढ़ के दौरान जलप्लावित भाग नम-भूमि के अन्तर्गत आता है ।
नम-भूमि दो प्रकार के होते हैं -
अ. मार्श - वैसे दलदली भाग, जो ग्रीष्मकाल में जलावृत नहीं होते, तथा
ब. स्वाम्प - ये सालों भर (ग्रीष्म काल में भी) जलावृत रहते हैं ।
4- ज्वारीय दलदल
उपरोक्त पेटी के मध्य कुछ निम्न भागों में ज्वार का जल इकठ्ठा हो जाता है, जिसे ज्वारीय दलदल कहा जाता है ।
भारत में नम-भूमि का कुल क्षेत्रफल लगभग 40 लाख हेक्टेयर है ।
भारत में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के निम्न नम-भूमियों का निर्धारण किया गया है -
1. वूलर झील एवं हरीके वैरेज
2. चिलका झील
3. केवलादेव राष्ट्र घाना पक्षी उद्यान, भरतपुर
4. लोकटक झील, मणिपुर, तथा
5. सांभर झील, राजस्थान नम-भूमि यद्यपि एक प्रकार की अनुपयोगी भूमि मानी जाती है, किन्तु इसका अध्ययन विकास के क्षेत्र में निम्न महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है -
1. बाढ़ नियंत्रण
2. जल की गुणात्त्मकता का नियमन
3. प्रदूषण को कम करना, तथा
4. जलीय - कृषि तथा जलीय जन्तु प्रजनन क्षेत्र के लिए संभाव्य स्थान ।
भारत सरकार ने संरक्षण एवं प्रबन्धन हेतु 21 नम-भूमि क्षेत्रों की पहचान की है ।
5- अम्लीकरण
वन प्रदेशों की मिट्टी को पत्तियों द्वारा प्राकृतिक रूप से अम्ल मिलता रहता है । इसके अतिरिक्त मानवीय क्रियाओं द्वारा भी मिट्टी में अम्ल की मात्रा में वृद्धि होती रहती है ।
भारत में अम्लीय वर्षा की सूचना कई स्थानों से प्राप्त हाती है । उदाहरण के लिए कानपुर औद्योगिक क्षेत्र के कारण अम्लीय वर्षण के कारण कानपुर क्षेत्र में अम्ल की मात्रा अधिक हो गई, फलस्वरूप उस क्षेत्र की मिट्टी अनुपजाऊ हो गई । नियंत्रण के उपाय -
अम्लीय वर्षा से बचने के लिए वायु-प्रदूषण पर कठोर नियंत्रण करना होगा ।
6- रिले क्रापिंग
एक ही खेत में वर्ष भर लगातार तीन या उससे अधिक फसलें लेते रहना ही ‘रिले क्रापिंग’ है। रबी की फसल को सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है । सिंचाई के समय मिट्टी के रासायनिक तत्त्व घुलकर मिट्टी की परिच्छेदिका ;वपस च्तवपिसमद्धके निचले संस्तर में जमा हो जाते हैं । गर्मी में खेत के खाली रहने की स्थिति में कृषक खेतों की जुताई कर देता है, जिससे नीचे जमा तत्त्व केशिका क्रिया (Capillry Action) ऊपर आ जाते हैं । इससे मिट्टी में उर्वरा शक्ति पुनः आ जाती है । मिट्टी के रासायनिक तत्त्वों के इस प्राकृतिक चक्रण कद्वारो मृदा-चक्र ;ैवपस ब्लबसमद्ध कहा जाता है । मनुष्य रिले - क्रापिंग द्वारा इस चक्र में बाधा उत्पन्न करता है । वह गर्मी में खेतों को अवकाश नहीं देता । अपितु उन पर जायद की फसलें पैदा करता है जिसके लिए सिंचाई की आवश्यकता होती है । गर्मी में भी खेतों की सिंचाई होते रहने के कारण मिट्टी के उर्वरक तत्त्व वर्ष भर रिसाव द्वारा नीचे जाते रहते हैं । उनको ऊपर आने का अवसर नहीं मिलता । फलस्वरूप मिट्टी अनुपजाऊ हो जाती है ।
7- अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग
ये मृदा को प्रदूषित करते हैं । इन्हीं समस्याओं से बचने के लिए हरी खाद तथा जैव उर्वरक पर अधिक बल दिया जा रहा है ।
8- नगरीय तथा औद्योगिक कचरे का विसर्जन
इनसे भी मृदा में प्रदूषण बढ़ता है ।