अध्ययन सामग्री: भारत का भूगोल "मरुस्थलीय विकास कार्यक्रम"


अध्ययन सामग्री: भारत का भूगोल


मरुस्थलीय विकास कार्यक्रम  (Desert Deveplopment Programme-DDP)

भारत में दो प्रकार के मरुस्थल पाये जाते हैं । प्रथम उष्ण मरुस्थल तथा द्वितीय शीत मरुस्थल । जलवायु अतिशयता के कारण दोनों में वनस्पतियों तथा जीवों का विकास बाधित होता है । देश का अधिकांश उष्ण मरुस्थल राजस्थान में तथा शीत मरुस्थल जम्मू एवं कश्मीर में मिलता है । मरुस्थल विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत दोनों मरुस्थल सम्मिलित किये जाते हैं । उष्ण मरुस्थल के अन्तर्गत मरुस्थल विकास कार्यक्रम गुजरात, हरियाणा तथा राजस्थान राज्यों के 17 जिलों में लागू किया गया है, जबकि शीत मरुस्थल में यह कार्यक्रम हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू-कश्मीर राज्यों के 4 जिलों में लागू किया गया है।
मरुस्थल विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 42 प्रतिशत भाग आता है जिसमें देश की 16 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है ।
मरुस्थल विकास कार्यक्रम योजना 1977-78 में निम्न उद्देश्यों के साथ शुरू की गई -

1- मरुस्थलीकरण पर नियन्त्रण - शरण पेटी ;(Shelter belt)] , घास क्षेत्र विकास ;त्स्क्द्ध, तथा बालु का स्तूपों के स्थिरीकरण पर विशेष जोर दिया गया ।

2- पारिस्थितिकी संतुलन को बनाये रखना - इसके लिए वृक्षारोपण (वानिकी) कार्य पर बल दिया गया ।

3- मरुस्थल
के लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार ।

4- जल-संसाधन का विकास -
जलीय भू-आकृति वैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर अंतरिक्ष अनुप्रयोग केन्द्र (SAC-Space Application Centre), अहमदाबाद के द्वारा देश के सभी जिलों के लिए भू-उपग्रह (Sattelite)  से प्राप्त भूमिगत जल संबंधित सूचनाओं के आधार पर मानचित्र तैयार किया गया । गुजरात, राजस्थान, बिहार, जम्मू एवं कश्मीर, मध्य प्रदेश तथा हरियाणा राज्यों के जल-संसाधनों की संभाव्यता का विशेष रूप से पता लगाया गया । इन जल स्रोतों से 1.6 कि.मी. दूरी के अन्दर प्रति व्यक्ति को प्रतिदिन 40 लीटर जल तथा प्रति गोपशु को 30 लीटर जल उपलब्ध कराया जा रहा है ।

5- जल-संचय की व्यवस्था (Water Harwesting)


6- राष्ट्रीय जल ग्रिड (National Water Grid)


7- शुष्क मेखला कृषि (Dry Zone Agriculture)


8- जल क्षेत्र प्रबन्धन  (Watershed Management)


9- कमाण्ड क्षेत्र विकास  (Command Area Development)


10- मृदा एवं आर्द्रता संरक्षण (Soil and Moisture Conservation)

सूखा संभावित क्षेत्र कार्यक्रम DPAP-Drought Prone Area Programme)

यह कार्यक्रम जनवरी, 1973 में प्रादेशिक स्तर पर लागू किया गया । यह योजना निम्न उद्देश्यों के लिए लागू की गयी:
1. मृदा एवं जल-संसाधन संरक्षण के आधार पर क्षेत्र के विविध कृषि जलवायु प्रदेशों में उचित फसल प्रतिरूप द्वारा शुष्क मेखला-कृषि को अधिक उत्पादक बनाना ।

2. उपलब्ध जल-संसाधन का सिंचाई हेतु सही प्रबन्धन ।

3. सही भू-
उपयोग द्वारा क्षेत्र की मृदा एवं नमी का संरक्षण ।

4. कृषि-वानिकी
, एवं वानिकी का विकास

5. पशुधन विकास
, जिसके अन्तर्गत चारागाह एवं चारा-संसाधन विकास सम्मिलित हंै।

6. ग्रामीण गरीबों
को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना ।

7. स्थायी कार्यों,
जैसे सड़क-निर्माण इत्यादि का सृजन, तथा

8. पेय-जल
आपूर्ति ।

देश के कुल क्षेत्र का 19 प्रतिशत भाग सूखा-ग्रस्त क्षेत्र है, जहाँ देश की लगभग 12 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती है । सूखा-ग्रस्त क्षेत्र निम्न उत्पादकता के कारण प्रादेशिक असंतुलन के कारण हैं ।
इसलिए पाँचवी पंचवर्षीय योजना में इन सूखा-ग्रस्त क्षेत्रों के लिए पारिस्थितिकी संतुलन तथा इनके स्थायी विकास हेतु योजनाएँ तैयार की गईं । साथ ही इन क्षेत्रों के भूमि, जल एवं मानव संसाधनों के सम्यक् एवं समुचित विकास एवं उपयोग पर बल दिया गया ।
 

सूखा-ग्रस्त क्षेत्र नियोजन कार्यक्रमों (DPAP) के क्रियान्वयन में जिला को इकाई के रूप में चुना गया तथा सामान्य योजनाओं एवं खण्डीय नियोजन ;(Sectoral Plan) के समन्वित रूप द्वारा नियोजन कार्यक्रम को लागू किया गया ।


सूखाग्रस्त क्षेत्र नियोजन योजना ;(D. P. A. P.)  केन्द्र द्वारा लागू की जाती है, जिसमें 50 प्रतिशत हिस्सेदारी सम्बन्धित राज्यों की होती है । सन् 1995-96 से जलसंभर विकास ;(Watershed Development)  आधारित एक नया दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है, जिसका उद्देश्य भूमि, जल, वनस्पति क्षेत्र जैसे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग, संरक्षण तथा विकास द्वारा पारिस्थितिकी सन्तुलन बनाये रखना तथा भूमि की उत्पादकता बढ़ाना है ।

पहली अप्रैल 1995 से यह कार्यक्रम जलसंभर परियोजनाओं के आधार पर चल रहा है ।

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