अध्ययन सामग्री: भारत का भूगोल "मृदाएं (Soils)"


अध्ययन सामग्री:  भारत का भूगोल


मृदाएं (Soils)

मृदाओं की उत्पत्ति

मिट्टी के निर्माण में विभिन्न प्राकृतिक कारक जैसे - स्थलमंडल, वायुमण्डल, जलमण्डल तथा जीवमण्डल प्रमुख भूमिका निभाते हैं । मिट्टी अपने पैतृक चट्टान (Perent rocks) के चूर्ण का वह निक्षेप है, जो अपक्षय तथा अपरदन कारकों द्वारा चट्टानों से अलग किया जाता है तथा जिसके निर्माण में वहाँ के वायुमंडलीय तत्वों (जलवायु) तथा जैविक तत्वों (वनस्पति, जन्तु एवं सूक्ष्म जीवाणु) की विशेष भूमिका होती है । पैतृक चट्टान के अपक्षयित चूर्ण के रंघ्रों । (Pores) में कुछ वायुमंडलीय गैसों जैसे नाइट्रोजन ऑक्सीजन  इत्यादि का समावेश हो जाता है जिसे मृदा-वायु  (Soil air) कहा जाता है । मिट्टी के रंघ्रों को रंघ्राकाश (Soil) Atmosphere) कहा जाता है । वर्षा वाले क्षेत्रों में इसमें जल प्रवेश कर जाता है । मिट्टी में वनस्पतियों का सड़ा-गला अंश मिल जाता है जिसे ह्यूमस (Humes) कहते हैं । इसी में जीवों का सड़ा-गला अंश भी मिल जाता है, जिसे ब्वजजवपक कहा जाता है । इस प्रकार मिट्टी के निर्माण में चट्टान की प्रकृति अपक्षय तथा अपरदनकारी प्रक्रम, जल की प्राप्ति तथा वनस्पति एवं जीवों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है । किन्तु इन सबमें चट्टान तथा जलवायु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक हैं ।

भारतीय मृदाओं का वर्गीकरण

भारत एक विशाल देश है जहाँ विभिन्न प्रकार की मिट्टियाँ पाईं जाती हैं । यहाँ की मिट्टी के क्षेत्रीय वितरण में असमानता का मुख्य कारण तापमान, वर्षा तथा आर्द्रता जैसे जलवायुगत तत्वों में भिन्नता का होना, विभिन्न भौगर्भिक युगों की संरचना, वनस्पति आवरण में क्षेत्रीय भिन्नता आदि का पाया जाना है । भारत की मिट्टियों का उचित वर्गीकरण प्रस्तुत करना एक जटिल कार्य है । दरअसल मिट्टियों को कई आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है और किसी भी एक आधार पर किया गया वर्गीकरण पूर्णतः त्रुटिहीन साबित नहीं हो सकता । यही कारण है कि मृदा वैज्ञानिक, कृषि वैज्ञानिक तथा भूगोलवेत्ताओं ने विविध प्रकार के मापक को आधार मानते हुए मृदा के वर्गीकरण का अपने-अपने ढंग से प्रयास किया है । इनमें से कुछ प्रमुख आधारों पर किए गए मृदा के वर्गीकरण निम्नलिखित हैं -

जलोढ़ मृदा

भारत का सर्वाधिक क्षेत्रफल इस मृदा के अन्तर्गत आता है । इसके अन्तर्गत 7.7 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र आता है, जो कुल क्षेत्रफल का 24 प्रतिशत है । यह मृदा उपजाऊ मृदा की श्रेणी में आता है । हांलाकि इसमें नाइट्रोजन और ह्यूमस की कमी होती है लेकिन पोटाश और चूना की प्रचुरता होती है । यह मृदा गंगा के मैदान में पाई जाती है ।

लाल मृदा -

लाल मृदा प्रायद्वीपीय भारत की विशेषता है । भारत में सभी आर्कियन और धारवाड़ चट्टानी क्षेत्र में लाल मृदा पायी जाती है । इसका कुल क्षेत्रफल 5.2 लाख वर्ग कि.मी. है । यह मृृदा मुख्यतः तमिलनाडु राज्य में कर्नाटक पठार, पूर्वी राजस्थान, अरावली पर्वतीय क्षेत्र, मध्य प्रदेश के ग्वालियर, छिन्दवाड़ा, बालाघाट, छत्तीसगढ़ के दुर्ग तथा बस्तर जिला, उत्तर प्रदेश के झांसी और ललितपुर जिला, महाराष्ट्र के रत्नागिरी, झारखंड के छोटानागपुर क्षेत्र, आन्ध्रप्रदेश के रायलसीमा पठारी क्षेत्र के साथ-साथ मेघालय तथा नागालैंड के भी कई क्षेत्रों में पायी जाती है ।
इस मृदा में लोहे की प्रधानता होती है । इसी प्रधानता के कारण इसका रंग लाल हो जाता है । इसमें नाइट्रोजन और फास्फोरस की कमी होती है । इसमें नमी को बनाये रखने की क्षमता भी कम होती है । ह्यूमस की मात्रा भी कम होती है । केरल में इस मृदा पर रबर की कृषि तथा कर्नाटक के चिकमंगलूर जिला में काफी की बगानी कृषि होती है । दलहन, तिलहन मोटे अनाज आदि इसकी प्रमुख फसलें हैं ।

काली मिट्टी

इसका क्षेत्रफल 5.18 लाख वर्ग कि.मी. है । इसे ‘रगूर मृदा’ या ‘कपासी मृदा’ भी कहते हैं। इसी मृदा पर भारत का लगभग दो तिहाई कपास उत्पन्न होता है । यह मृदा दक्कन लावा प्रदेश की विशेषता है। दूसरी शब्दों में यह बेसाल्ट के क्षरण और विखंडन से विकसित मृदा है । चूँकि बेसाल्ट का रंग काला होता है, इसलिए मृदा भी काले रंग की होती है । यह मृदा सतह पर रूखड़ी होती है । लेकिन सतह के नीचे चिकने स्तर होते हैं । रूखड़े सतह के कारण जल नीचे चला जाता है और नीचे क्ले होने के कारण जल का बहाव पुनः अधिक गहराई तक नहीं होता । इसके कारण मृदा के ‘अंतर्गत’ नमी लंबी अवधि तक रहती है ।
यह भारत में उर्वर मृदाओं में से है । पर्याप्त नमी के साथ-साथ इस मृदा में चूना, पोटाश और लोहा का भी पर्याप्त अंश होता है । परन्तु इसमें ह्यूमस और जैविक तत्वों की कमी होती है । इन सबके बावजूद अन्य खनिजों की बहुलता और जल रखने की क्षमता इसे उर्वरक मृदा बनाते हैं । यह मृदा शुष्क कृषि के लिए बहुत अनुकूल है । यही कारण है कि इसमें चावल के बदले मोटे अनाज अधिक होते हैं । लेकिन भारत में इसका अधिकतर उपयोग व्यापारिक फसलों के लिए होता है । कपास इसकी परंपरागत फसल है । 60 के दशक में यहाँ गन्ने की कृषि वृहत स्तर पर हुई, 70 के दशक में केले की कृषि और 90 के दशक से अंगूर और नारंगी की कृषि। फिर भी कपास दक्कन क्षेत्र की प्रमुख फसल है ।

4. लेटेराइट मृदा

इसके अन्तर्गत करीब तीन लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र आता है । यह मृदा भारत के उन क्षेत्रों में पायी जाती है, जहाँ निम्नलिखित भौगोलिक विशेषताएँ पायी जाती हैं । प्रथमतः लैटराइट चट्टान का होना आवश्यक है । दूसरा उस प्रदेश का मौसम वैकल्पिक हो अर्थात आर्द्र और शुष्क मौसम वैकल्पिक रूप से आते रहें ।
भारत में यह मृदा मुख्यतः केरल, सह्याद्रि पर्वतीय क्षेत्र, पूर्वी घाट, पर्वतीय उड़ीसा, बिहार और मध्यप्रदेश के पठारी क्षेत्र, गुजरात के पंचमहल जिला और कर्नाटक के बेलगाँव जिला में प्रधानता से पायी जाती है । इस मृदा का सर्वाधिक क्षेत्र केरल में है ।
इसमें एल्युमिनियम और लोहा की प्रधानता होती है । इसमें ह्यूमस का निर्माण तो होता है, लेकिन मृदा के उपरी सतह पर इसकी कमी रहती है। वस्तुतः यह उपजाऊ मृदा की श्रेणी में नहीं है । लेकिन यह जड़ीय फसल ;तववज बतवचद्ध जैसे - मुंगफली के लिए विशेष रूप से उपयोगी है । भारत की अधिकतर मूंगफली इसी मृदा में होती है । यह मृदा काजू की कृषि, रबर, काॅफी और मसाले, तेजपात की कृषि के लिए भी अनुकूल है । टोपायका जैसे मोटे खाद्यान्न इसी मृदा पर उत्पन्न किये जाते हैं । आधुनिक कृषि संरचनात्मक सुविधाओं की मदद से इस मृदा को अधिक उर्वरक बनाने पर जोर दिया जा रहा है ।

5. वनीय मृदा

वनीय मृदा दो लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र में पाई जाती है । यह मृदा मुख्यतः पूर्वोत्तर भारत, शिवालिक पहाड़ी और दक्षिण भारत के पर्वतीय ढ़ालों पर पायी जाती है । इस मृदा की परत पतली होती है। इसके उपरी सतह पर जैविक पदार्थ बहुलता से होते हैं । यह मृदा बागानी फसलों के अनुकूल है । भारत के अधिकतर बागानी फसल (चाय, रबर) इसी मृदा पर उत्पन्न होती है । पूर्वोत्तर भारत तथा शिवालिक क्षेत्र में झूम कृषि और सीढ़ीनुमा कृषि भी मुख्यतः इसी प्रकार की मृदा पर होती है ।
यह मृदा क्षरण की गंभीर समस्या से ग्रसित है । कंटूर फार्म विकसित कर इस मृदा को अधिक से अधिक उपयोगी बनाने का प्रयास किया जा रहा है । कर्नाटक, असम और मेघालय में इस मृदा के उपर बांस की बागानी कृषि, कर्नाटक, केरल, अण्डमान-निकोबार द्वीपसमूह और त्रिपुरा में इसी मृदा के उपर रबर की बागानी कृषि बहुलता से की जाती है ।

6. लवणीय एवं क्षारीय मृदा

इसके अंतर्गत 1.42 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र आता है । यह मृदा अंतःप्रवाह क्षेत्र की विशेषता है। इसे ‘पलाया मृदा’ भी कहा जाता है । मरुस्थलीय प्रदेश के पलाया, जलोढ़ और बलुही क्षेत्र में इसकी प्रधानता है । भारत में राजस्थान के लूनी बेसिन, सांभर झील के क्षेत्र तथा दक्षिणी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई छोटे-छोटे बेसिन में यह मृदा विकसित हुई है । मैदानी भारत में भी यह कहीं-कहीं पाई जाती है । इसे ‘रेह’ अथवा ‘ऊसर मृदा’ भी कहा जाता है । इसमें लवण, बालू और क्ले की प्रधानता होती है । वर्षा होने के बाद सतह के लवण घुलकर नीचे चले जाते हैं । लेकिन ज्योंही वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया तीव्र होती है, लवण पुनः उपरी सतह पर आ जाते हैं । क्षारीय मृदा में भी लवण की प्रधानता होती है, लेकिन इसमें सोडियम क्लोराइड अधिक होते हैं, जो जल्दी से घुलकर सतह के नीचे नहीं जाते हैं ।
भारत का यह मृदा क्षेत्र कृषि के लिए प्रतिकूल क्षेत्र है । इसमें नमी की भारी कमी होती है। लेकिन नवीन कृषि नीति के अंतर्गत ऐसे अंतःप्रवाह क्षेत्र से जल के बाहरी निकास का प्रयास किया जा रहा है। जल के निकास से वाष्पोत्सर्जन का प्रभाव कम होगा और इससे लवण का स्तर धीमी गति से सतह पर आने लगेगी । पुनः लवण का स्तर सतह पर आये, इसके पूर्व ही यदि ड्रिप सिंचाई की व्यवस्था हो जाये, तो लवण को नीचे की स्तरों पर रखा जा सकता है । यह परिस्थिति सब्जी, फल और फूल की कृषि के लिए अनुकूल होती है । राजस्थान एग्रीकल्चर मार्केटिंग बोर्ड द्वारा लवणीय मृदा के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किये जा रहे हैं । इसी विकास कार्यों के परिणामस्वरूप राजस्थान इन फसलों का अग्रणी उत्पादक हो गया है ।

7. मरुस्थलीय मृदा

भारत की यह मृदा एक लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र के अंतर्गत आती है । यह अरावली पर्वत के पश्चिमी राजस्थान की विशेषता है । इसके अंतर्गत लवण और बालू की प्रधानता होती है । फास्फेट खनिज भी पर्याप्त मात्रा से पाये जाते हैं । लेकिन इसकी सबसे बड़ी समस्या नमी की कमी है । लेकिन जब वर्षा ऋतु में नमी की उपलब्धता होती है, तो यह मृदा मोटे अनाजों के लिए अनुकूल हो जाती है । भारत का अधिकतर बाजरा इसी मृदा पर उत्पन्न किया जाता है । वर्तमान समय में इस मृदा का उपयोग चारे की कृषि तथा कई प्रकार के दलहन की कृषि के लिए किया जाता है ।

8. पिट अथवा जैविक मृदा

इसके अंतर्गत भारत का करीब 1) लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र आता है । यह मृदा उर्वरक मृदा की श्रेणी में नहीं आती । यह डेल्टाई भारत की विशेषता है । इसके अतिरिक्त भारत के अन्य क्षेत्र हैं - केरल का एलप्पी जिला तथा उत्तरांचल का अल्मोड़ा जिला । इस मृदा में क्ले की प्रधानता होती है । ज्वारीय प्रभाव से यह अक्सर जलमग्न होती रहती है । अतः इसके क्ले मृदा में नमी और लवण की कमी नहीं होती । लेकिन इसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें ह्यूमस का अंश गौण होता है, क्योंकि लवणयुक्त इस मृदा में सूक्ष्म जीवों का विकास नहीं हो पाता । सूक्ष्म जीवों के अभाव में ह्यूमस का निर्माण नहीं होता । यही कारण है कि इस मृदा में उर्वरक गुणों की कमी है । इसके व्1 स्तर में पत्ते, लकडि़यों तथा जड़ के टुकड़े पाये जाते हैं, जो मृदा की उपरी सतह पर जैविक पदार्थों की बहुलता रखते हैं । लेकिन व्2 स्तर में ह्यूमस के बदले लकड़ी और पत्तों के टुकड़े पाये जाते हैं । इसी कारण जलोढ़ और तटीय मृदा होने के बावजूद यह भारत की उपजाऊ मृदाओं की श्रेणी में नहीं है ।

 
 

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