अध्ययन सामग्री: भारत का भूगोल "वन-संसाधन "


अध्ययन सामग्री: भारत का भूगोल


वन-संसाधन

परिचय

स्वस्थ पर्यावरण एवं पारिस्थितिक संतुलन के लिए समस्त भू-भाग का एक तिहाई वनों से ढका रहना चाहिए । भारत में वनाच्छादित क्षेत्रफल 748 लाख हेक्टेयर है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 27.7 प्रतिशत है । यह म्यांमार में 68 प्रतिशत, जापान में 62 प्रतिशत, स्वीडन में 55.5 प्रतिशत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में 33 प्रतिशत है, भारत के राज्यों में सर्वाधिक वन से आच्छादित अरूणाचल प्रदेश 87 प्रतिशत है । जबकि बिहार में 17 प्रतिशत राजस्थान में 4 प्रतिशत तथा हरियाणा एवं पंजाब में मात्र 2 प्रतिशत क्षेत्र पर वन हैं ।भारत में 93 प्रतिशत उष्ण कटिबंधीन वन तथा शेष 7 प्रतिशत शीतोष्ण वन हैं । उष्ण कटिबंधीय वनों में 50 प्रतिशत पर्णपाती अर्थात् पतझड़ वन हैं ।भारत में वनों का उत्पाद प्रतिवर्ष मात्र 0.5 घन मीटर प्रति हेक्टेयर है, जबकि विश्व का औसत उत्पादन 2.1 घन मीटर प्रति हेक्टेयर है ।
भारतीय वनों का वर्गीकरण भारत मानसूनी जलवायु का देश है । इसके बावजूद यहाँ अनेक प्रकार की प्राकृतिक वनस्पतियाँ पायी जाती हैं । वृहत अक्षांशीय विस्तार, तटीय फैलाव, वर्षा के वितरण की विषमता, उच्चावच, पर्वतीय विविधता तथा वनस्पतियों के प्रकार के कारण यहाँ वनों में व्यापक विषमता पाई जाती है ।

भारत के वनों को मुख्यतः छः भागों में वर्गीकृत किया गया है -

1. उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन  (Tropical Evergreen Forest)

2. उष्ण कटिबन्धीय आर्द्रपर्णपाती वन  (Tropical Dry Deciduous Forest)

3. कँटीले वन (Themy Forest)

4. पर्वतीय वन  (Mountain Forest)

5. ज्वारीय वन (Tidal Forest) तथा

1. उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन -

 ये वन भारत के उन अत्यधिक आर्द्र एवं उष्ण भागों में मिलते हैं, जहाँ औसत वार्षिक वर्षा 200 से.मी. से अधिक, सापेक्ष आर्दता 70 प्रतिषत से अधिक तथा औसत तापमान 240 के आसपास रहता है । उच्च तापमान, अधिक वर्षा और अपेक्षाकृत अल्पकालीन शुष्क ऋतु के कारण ये वन अत्यंत सघन तथा ऊँचे होते हैं । ऐसे पेड़ों की ऊँचाई 60 मीटर से भी अधिक होती है । विभिन्न जाति के वृक्षों के पत्तों के गिरने का समय भिन्न होता है, जिसके कारण संपूर्ण वन हमेषा हरा रहता है । इन वनों में अनेक जाति के पेड़ पाये जाते हैं । यद्यपि इसकी तुलना विषुवतीय प्रदेष की वनस्पति से की जाती है । लेकिन यह पूर्णरूपेण विषुवतीय नहीं है, क्योंकि इनके अक्षांषीय विस्तार अलग होने के साथ-साथ वहाँ संवहनीय वर्षा का भी अभाव है। इन वनों में पाये जाने वाले महत्वपूर्ण वृक्षों में, रबड़, महोगनी, एबोनी नारियल, बांस, बेंत तथा आइसवुड प्रमुख हैं । ये वन मुख्यतः 4 क्षेत्रों में पाये जाते हैं -

(क) अण्डमान निकोबार द्वीप समूह

(ख) पूर्वोत्तर भारत (असम, मेघालय, नागालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा)

(ग) पष्चिमी घाट (मालावार प्रदेष), तथा

(घ) हिमालय का तराई क्षेत्र

इन वनों का क्षेत्रफल 46 लाख हेक्टेयर है । अत्यधिक सघन वन होने से एवं लकड़ी के अत्यधिक सख्त होने के कारण ये वन आर्थिक दृष्टि से अधिक उपयोगी नहीं हैं । फिर भी हाल के वर्षों मे यहाँ वाणिज्यिक महत्व के पेड़ लगाए जाने पर काफी बल दिया जा रहा है, जिनमें रबड़, तेलताड़ (Palm Oil)  एवं महोगनी के वृक्ष प्रमुख हैं ।

2. उष्ण कटिबंधीय आर्द्र पर्णपाती वन -

इसे ‘उष्ण मानसूनी वन’ भी कहते हैं । ये वन देष के उन सभी भागों में पाए जाते हैं, जहाँ 100 से 200 से.मी. वार्षिक वर्षा होती है । इसके मुख्य क्षेत्र सह्याद्रि या पष्चिमी घाट के पूर्वी ढ़लान, प्रायद्वीपीय उत्तरी-पूर्वी पठार, उत्तर में षिवालिक श्रेणी के सहारे भाबर और तराई में विस्तृत हैं । ये ‘विषिष्ट ‘मानसूनी वन’ हैं । कोपेन महोदय ने इसे ‘सवाना वन’ कहा है । ये पेड़ ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ में अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं, इसलिए इसे पतझड़ वन भी कहते हैं ।

इस वन के पेड़ों की ऊँचाई सामान्यतः 30 से 45 मीटर होती है । सागवान (Teak)  एवं उत्तरी क्षेत्र में पाये जाने वाला सखुआ (Sal)  इसके प्रमुख एवं आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पेड़ हैं । इसका सर्वाधिक क्षेत्रफल मध्य प्रदेष में है । इसके अतिरिक्त बाँस, चंदन (कर्नाटक में), शीषम (उत्तरी भागों में), आम, महुआ, त्रिफला (आँवला, हर्रे और बहेडे) और कत्था भी आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण पेड़ हैं । बाँस और सवई घास का उपयोग कागज़ उद्योग में होता है । तेन्दु के पत्ते का उपयोग बीड़ी उद्योग में होता है ।

इस वन के अप्रत्यक्ष लाभ भी हैं, जैसे शहतूत के वृक्ष पर रेषम के कीड़े पाले जाते हैं । रेषम कीड़े का सर्वाधिक पालन कर्नाटक में होता है । इसके अलावा तमिलनाडु, बिहार, मध्यप्रदेष एवं उड़ीसा में भी इसके कीड़े पाले जाते हैं । पलाष, बबूल और पीपल के पेड़ों पर लाह के कीड़े पाए जाते हैं । भारत विष्व का सबसे बड़ा लाह उत्पादक देष है । चंदन के पेड़ कर्नाटक में होते हैं । इन्हीं सब कारणों से भारत के इस वन को आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है ।

3. उष्ण कटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन -

ये वन उन क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 70 से 100 से.मी. तक होती है । इसमें उत्तर प्रदेष के अधिकतर भाग, पष्चिमी बिहार, उत्तरी तथा पष्चिमी मध्यप्रदेष, महाराष्ट्र के अधिकतर भाग, उत्तरी आंध्रप्रदेष, कर्नाटक की मध्यवर्ती उत्तरी-दक्षिण संकीर्ण पट्टी और तमिलनाडु के पूर्वी भाग सम्मिलित हैं । वर्षा की कमी और जलवायु की विषमता के कारण इनमें ऊँचे पेड़ों का अभाव है। शुष्क सीमान्त पर ये पर्णपाती वन कँटीले वनों और झाडि़यों मे बदल जाते हैं । अत्यधिक चराई के कारण ये वन-क्षेत्र चुनौती भरी समस्या उत्पन्न करते हैं ।

4. कँटीले वन -

यह वन गुजरात से लेकर राजस्थान और पंजाब के उन भागों में मिलता है, जहाँ वार्षिक वर्षा 70 से.मी. से कम होती है । पठार के मध्यभाग में भी; जहाँ लम्बी शुष्क ग्रीष्म ऋतु मिलती है, ये वन पाये जाते हैं । बबूल, खैर, खजूरी तथा खेजरी इन वनों के कुछ प्रमुख उपयोगी वृक्ष हैं । अत्यल्प वर्षा वाले क्षेत्र में नागफनी और कैक्टस् प्रजातियों की अर्द्धमरुस्थलीय वनस्पति ‘जीरोफाइट्स’ पाये जाते हैं ।

5. पर्वतीय वन -

 भौगोलिक दृष्टि से इन्हें उत्तरी या हिमालय वन तथा दक्षिणी या प्रायद्वीपीय वनों में बांटा जा सकता है -

(क) उत्तरी या हिमालय वन - इन वन प्रदेषों में ऊँचाई की महत्त्वपूर्ण भूमिका है । इस क्षेत्र में ऊँचाई के क्रम के अनुसार उष्ण कटिबंधीय से लेकर अल्पाइन वनस्पति प्रदेषों तक का अनुक्रम पाया जता है। ये विभिन्न पेटियों में वर्गीकृत हैं, एवं ये सभी पेटियाँ केवल 6 कि.मी. की ऊँचाई में समायी हुई हैं । हिमालय की गिरिपाद षिवालिक की श्रेणियाँ उष्णकटिबंधीय आर्द्रपर्णपाती वनों से आच्छादित हैं । साल यहाँ के प्रमुख वृक्ष हैं। बांस भी यहाँ खूब होता है ।

(i) 100 से लेकर 200 मीटर तक की ऊँचाई पर आर्द्र पर्वतीय वन पाए जाते हैं । सदाहरित चैड़ी पत्ती वाले ओक, चेस्टनट तथा सेब के वृक्ष यहाँ सामान्य रूप से मिलते हैं । इसी ऊँचाई पर उत्तर-पूर्वी भागों में उपोष्ण कटिबंधीय चीड़ के वन पाए जाते हैं ।

(ii) 1600 से 3300 मीटर की ऊँचाई के बीच शीतोष्ण कटिबंधीय प्रसिद्ध शंकुधारी वन पाए जाते हैं । इनमें चीड़, सिल्चर, फर और स्प्रूस वृक्ष पाए जाते हैं ।

(iii) 3000 मीटर से अधिक ऊँचाई पर अल्पाइन वनों तथा चारागृह भूमियों का संक्रमण पाया जाता है । इन वनों के प्रमुख वृक्ष सिल्वर फर, चीड़, वर्च तथा जैनिफर हैं ।

(ख) दक्षिणी या प्रायद्वीपीय पहाडि़यों के वन - यहाँ मुख्यतः घास के मैदान मिलते हैं, जिनके बीच अविकसित वर्षा-वन या झाडि़याँ पाई जाती हैं । इस प्रकार की वनस्पति मुख्यतः नीलगिरि, अन्नासलाई, पालनी, महाबलेष्वर, सह्याद्रि के उच्च भाग तथा सतपुड़ा आदि में मिलती हैं । हाल ही में इन पहाडि़यों में युकिलिप्टस के पेड़ लगाए जा रहे हैं ।


6. ज्वारीय वन दृ इन्हें मैनग्रोव (Mangrove),  दलदली (Swampy)  अथवा डेल्टाई वन  (Delta Forest)  भी कहा जाता है । भारत में ये वन उष्णकटिबंध के ज्वारीय दलदलों, तटीय लैगून, डेल्टा तथा पष्च-जल झीलों के समीप मिलता है । ये वन गंगा-ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी तथा कृष्णा-कावेरी आदि के डेल्टाओं में उगते हैं । सुन्दरी नामक वृक्ष इन वनों का प्रसिद्ध वृक्ष है । इसी वृक्ष के नाम पर गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा के वन को सुन्दरवन कहा जाता है ।

सुन्दरवन के अलावा ज्वारीय वन के अन्तर्गत तमिलनाडु के तटवर्ती क्षेत्र में पाये जाने वाले ताड़ के वन तथा पष्चिमी तटवर्ती मैदान में पाया जाने वाला नारियल का वन भी सम्मिलित हैं । नारियल के वन इनके अतिरिक्त ये ब्राह्मणी और महानदी डेल्टा के बीच तथा कृष्णा और कावेरी डेल्टा के बीच भी सघन रूप से पाए जाते हैं । इसके अलावा गुजरात के कच्छ क्षेत्र में भी ये वन पाए जाते हैं । इसलिए इन वनों को ‘कच्छ’ या ‘गरान वनस्पति’ भी कहते हैं ।

ज्वारीय/मेंग्रोव का निम्नलिखित पर्यावरणीय महत्त्व है -

(क) यह समुद्री अपरदन से तटों की रक्षा करता है ।

(ख) इन वनों की लकडि़यों से नांव बनायी जाती है, क्योंकि ये जल में सड़ती नहीं हैं ।

(ग) इनका महत्त्व ‘जल-वानिकी-कृषि-जल कृषि (Hydro-Silvi-Agri-Aquaculture)  पारिस्थितिकी तंत्र में है, क्योंकि इन दलदली वनों में वन उत्पाद(Silviculture)   के साथ मत्स्ययन (Aquaculture)  तथा धान की खेती (Agriculture)  भी होती है ।

(घ) यह वायुमंडलीय तल को नियंत्रित करता है । ज्वारीय वन/मैग्रोव वनस्पतियों के संरक्षण के लिए देष में भारत सरकार की ओर से कई योजनाएँ चलाई जा रही हैं ।

भारतीय वनों का महत्त्व

वनों से हमें अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लाभ हैं -

(क) प्रत्यक्ष लाभ

1. भोजन - वन से भोजन के लिए कंद-मूल, फल-फूल की प्राप्ति होती है, जो कई आदिम जातियों के लिए आज भी भोजन प्राप्ति का एकमात्र साधन है ।

2. फर्नीचर एवं जलावन के लिए लकड़ी - वनों से हमें प्रतिवर्ष 4000 से अधिक प्रकार की लकड़ी प्राप्त होती है, जिनमें 500 से अधिक मूल्यवान लकडि़याँ हैं, जैसे - सखुआ, सागवान, शीषम, देवदार, चंदन इत्यादि । इससे हमें ईंधन या जलावन की लकड़ी भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती है ।

3. उद्योगों के लिए कच्चा माल - कागज, दियासलाई, कत्था, रबर, कृत्रिम रेषम, बीड़ी इत्यादि विभिन्न उद्योग-धंधों के लिए कच्चा माल मिलता है ।

4. पशुओं के लिए चारा - वनों में चरने वाले पशुओं को वनों से चारा प्राप्त होता है ।

5. काष्ठकोयला की प्राप्ति - यह जलावन के अतिरिक्त शक्तिसाधन के रूप में उपयोगी सिद्ध हुआ है। भद्रावती का लौह-इस्पात कारखाना काष्ठकोयला का मुख्य रूप से उपयोग करता है ।

6. जड़ी-बूटी आदि की प्राप्ति - इससे जड़ी बूटी, मधु तथा फल-मूल की प्राप्ति होती है ।

7. रेषम की प्राप्ति - अण्डी तथा शहतूत पर रहने वाले रेषम के कीड़ों से रेषम मिलता है ।

8. लाह की प्राप्ति - पलास, कुसुम आदि पर पनपने वाले लाह के कीड़ों से लाह प्राप्त होती है, जिसके उत्पादन पर भारत का एकाधिकार है ।

9. लोगों के आजीविका का साधन - लकड़ी काटने, चीरने, ढ़ोने, सामान तैयार करने आदि से बहुत से लोगों को आजीविका मिल जाती है ।

10. आय की प्राप्ति - सरकार को इससे अरबों रूपए की वार्षिक आय के रूप में होती है।

11. आश्रय प्रदान - कई जनजातियों तथा जीव-जन्तुओं को यह आश्रय प्रदान करता है ।

(ख) अप्रत्यक्ष लाभ

1. वन वायुमंडल में कार्बन डाई-ऑक्साइड  (CO2) की सांद्रता को नहीं बढ़ने देते ।

2. वन रेगिस्तान के फैलाव को रोकते हैं ।

3. वन पर्यटकों को आकर्षित करके लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं ।

4. वन वातावरण में नमी बनाए रखते हैं तथा जलवायु को स्वच्छ बनाए रखते हैं । इस प्रकार ये ‘सूखे’ की स्थिति से हमें बचाते हैं ।

5. वन बादलों को अपनी ओर आकृष्ट करके जलवृष्टि कराने में सहायक होते हैं ।

6. ये बाढ़ को रोकते हैं । वनों द्वारा नदियों की धारा नियंत्रित होती है ।

7. वनों से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है । पेड़ों के पत्तों के सड़ने-गलने से मिट्टी में जीवांष ;भ्नउनेद्ध की मात्रा में वृद्धि होती है, जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है ।

8. वन कृषि तथा अन्यान्य उद्योगों के बीच संतुलन स्थापित करते हैं ।

9. वन भूमिगत जलस्तर को उठाते हैं, जिससे कुआँ खोदने तथा सिंचाई करने में सुविधा होती है।

10. मृदा अपरदन पर नियन्त्रण - पेड़-पौधे मिट्टी को अपनी जड़ों से जकड़कर रखते हैं।कुल-मिलाकर कहा जा सकता है कि अन्य लाभों के अतिरिक्त इसकी सबसे महती भूमिका पर्यावरण का संतुलन कायम रखना है ।

सामाजिक वानिकी

सामुदायिक हितों और पर्यावरण संरक्षण के उद्देष्य से सामाजिक वानिकी कार्यक्रम की शुरूआत 1980 में की गई थी । यह कार्यक्रम राष्ट्रीय कृषि आयोग (1976) एवं जलावन की लकड़ी पर आयोजित कार्यषाला, 1980 की रिपोर्ट की अनुषंसा पर प्रारंभ किया गया था । इन दोनों ने अपनी अनुषंसा में इस बात पर जोर दिया था कि ग्रामीण क्षेत्रों में वैकल्पिक अर्थव्यवस्था तथा जलावन की लकड़ी की समस्या के लिए एक ऐसा सामाजिक वानिकी कार्यक्रम चलाया जाए, जिसमें वन लगाने तथा उसके उपयोग करने की जिम्मेदारी उसी प्रदेष के लोगों की हो ।
इस कार्यक्रम के अंतर्गत ग्रामीणों द्वारा ग्राम-समाज की भूमि पर वृक्षों को लगाया जाता है ।
सामाजिक वानिकी के उद्देष्य
राष्ट्रीय कृषि आयोग, 1978 के अनुसार इसके मुख्य उद्देष्य निम्नलिखित थे -

1. ईंधन उपलब्ध कराना तथा गोबर का प्रयोग खाद के रूप में करना ।

2. भूमि संरक्षण ।

3. खेतों की उर्वरता की रक्षा ।

4. फलों का उत्पादन बढ़ाकर खाद्य-संसाधन की बढ़ोत्तरी करना ।

5. डत्पादकता बढ़ाने हेतु खेत के चारों ओर वृक्ष लगाना ।

6. लेगों मे वृक्षों के प्रति चेतना तथा प्रेम बढ़ाना ।

7. भू-परिदृष्य के लिए सजावटी तथा छायादार वृक्ष लगाना ।

8. इमारती लकड़ी उपलब्ध कराना ।

9. सुरक्षित तथा संरक्षित वनों को पशु चारण से बचाने के लिए चारे की उपलब्धता बढ़ाना।

10. ग्रामीण उद्योग के लिए कच्चे माल की आपूर्ति ।

11. भूमिगत जल स्तर में सुधार ।

12. रोजगार के अवसरों का निर्माण तथा

13. प्रादेशिक आत्म निर्भरता ।

अधिकतर अर्थषास्त्री तथा भूगोलवेत्ताओं के अनुसार सामाजिक वानिकी न केवल पारिस्थितिकीय संतुलन की दिषा में एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है, वरन् गरीबी निवारण, ग्रामीण विकास तथा रोजगार के नए अवसर प्रदान करने की भी योजना है । जहाँ तक इस कार्यक्रम की सफलता का प्रष्न है, वह संतोषजनक नहीं है ।

सामाजिक वानिकी कार्यक्रम की असफलता के कारण

1. राजनैतिक-प्रषासनिक प्रतिबद्धता का अभाव,

2. भूमि पर अवैध कब्जा,

3. भू-सुधार की मंद गति,

4. पंचायतों की उदासीनता,

5. जन-सहभागिता का अभाव; खासकर भूमिहीन कृषकों की साझेदारी का अभाव,

6. प्रषिक्षण की कमी,

7. उचित तथा पारिस्थितिकीय अनुकूल पौधों का आवंटन नहीं । यूकेलिप्टस द्वारा मृदा उर्वरता में हृास,

8. वृक्षों की अवैध कटाई,

9. पशु चारण, तथा

10. आगजनी आदि,

सामाजिक वानिकी कार्यक्रम को सफल बनाने के उद्देष्य से 1990 के दषक में निम्न कुछ नए कार्यक्रम शामिल किये गये -

1. निजी क्षेत्र तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनी ;डछब्द्ध को वानिकी में निवेष हेतु प्रोत्साहित किया गया । सर्वाधिक निवेष मध्यप्रदेष में मुख्य रूप से सागवान एवं साल वृक्षों को लगाने में हुआ ।

2. पंचायतों को दायित्त्व प्रदान किया गया ।

3. गैर सरकारी संगठन ;छळव्द्ध की भूमिका में वृद्धि की गई ।

4. भारतीय सैनिकों तथा सेवानिवृत्त सैनिकों द्वारा भी वानिकी के कार्यक्रम किए गये ।

सफलता हेतु अन्य सुझाव

यद्यपि वानिकी कार्यक्रम एक राष्ट्रीय कार्यक्रम बन चुका है, लेकिन अभी भी वनाच्छादित क्षेत्र अनिवार्यता से काफी कम है । अतः इस कार्यक्रम को त्वरित करने की जरूरत है, जिसके लिए इस कार्यक्रम में कुछ नए कार्यक्रम जोड़ने की आवष्यकता है; जैसे -

1. प्राथमिक से उच्च षिक्षा तक वानिकी से संबंधित षिक्षा प्रारंभ करना ।

2. प्रदर्षनी तथा संचार माध्यम द्वारा लोगों को इसके लाभ की जानकारी देना तथा जागृति पैदा करना ।

3. वानिकी प्रषिक्षण तथा प्रबंधन कार्यक्रम के लिए डिप्लोमा, डिग्री प्रदान करने पर ध्यान देना।

4. लघु स्तर पर विविध प्रकार के तीव्र विकसित होने वाले पौधों को उपलब्ध कराना ।

5. वन महोत्सव, प्रतियोगिता, अनुसंधान आदि पर बल देना ।

6. निजी क्षेत्रों के लिए प्रोत्साहन कार्यक्रम ।

7. मृदा संरक्षण, वन संरक्षण, पर्यावरण एवं पारिस्थितिक संतुन के कार्यक्रमों में आपसी संबंध स्थापित कर इसे और व्यापक एवं प्रभावी बनाने पर बल देना । कुल मिलाकर इतना कहा जा सकता है कि ‘सामाजिक वानिकी’ का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है, इसे अपनाकर राष्ट्र समृद्धि पा सकता है ।


कृषि वानिकी (AGRO FORESTRY)

कृषि वानिकी सामाजिक वानिकी का ही एक प्रकार है । अंतर्राष्ट्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान परिषद् ICRAF – International Council for Research  पद Agro Forestry) के अनुसार कृषि वानिकी भू-उपयोग की एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें बहुवर्षीय वृक्ष तथा एक वर्षीय फसल को साथ-साथ या क्रम से उगायी जाती है । इसका मूल उद्देष्य भूमि का महत्तम उपयोग करना है । इसमें किसान विभाग द्वारा सस्ती दरों पर उपलब कराये गये पौधों को अपने खेतों तथा उनके मेड़ों पर लगाता है।
वस्तुतः ‘कृषि वानिकी’ पुरातन वानिकी व्यवस्था, जहाँ भूमि का प्रयोग एक साथ कृषि वानिकी तथा पशु चारागाह के लिए किया जाता था, का ही एक नया नाम है ।
भारत में, ‘कृषि वानिकी’ के अन्तर्गत अत्यधिक वृक्षारोपण के कार्य हुए हैं । इससे ईंधन के लिए लकड़ी, पशुओं के लिए चारा तथा इमारती लकड़ी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हुआ है ।

सर्वजनिक वानिकी (PUBLIC FORESTRY)

सार्वजनिक वानिकी में वन विभाग द्वारा तीव्रगति से बढ़ने वाले पेड़ों को रोड़, रेल की पटरियों, तथा नहरों के किनारे तथा सार्वजनिक स्थानों पर लगाया जाता है । इसका मूल उद्देष्य समुदाय के लोगों की आवष्यकताओं की पूर्ति करना है ।


जैव मंडलीय सुरक्षित क्षेत्र  Bio-Sphere Reserve

जैव मंडलीय सुरक्षित क्षेत्र (जीवन मंडल भंडार), प्रतिनिधित्त्व पारिस्थितिक प्रणालियों में आनुवांषिक विभिन्नता को बनाये रखने वाला बहुउद्देषीय कार्यक्रम है । प्राकृतिक एवं मानवीय गतिविधि से होने वाले जैव संपदा की क्षति को रोककर पारिस्थितिक संतुलन को कायम रखना इसका मुख्य काम है । इसमें पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं को उनके प्राकृतिक आवास क्षेत्र में ही संरक्षण प्रदान किया जाता है । इसमें मानवीय हस्तक्षेप नहीं होता है । इसका मुख्य उद्देष्य पारिस्थितिकीय संवेदनषील क्षेत्रों की जैव संपदा को संरक्षित करना तथा स्थानीय लोगों के विकास की व्यवस्था करना था, ताकि संपदा पर उनकी निर्भरता कम से कम हो और वे खुद इस प्रक्रिया में भागीदार बन सके ।


भारत सरकार द्वारा 1979 में स्थापित सलाहकार दल की सिफारिषों के अनुसार देष के जीवन मंडल भंडारों (बायोस्फेयर रिजर्व) की स्थापना के लिए 14 समन्वित स्थल निर्धारित किये गये । सर्वप्रथम वर्ष 1986 में भारत में प्रथम बायोस्फेयर रिजर्व की स्थापना नीलगिरी (कर्नाटक, केरल व तमिलनाडु) बायोस्फेयर रिजर्व के रूप में हुआ पर उत्तर भारत में प्रथम बायोस्फेयर रिजर्व नन्दा देवी (उत्तर प्रदेष) 1988 में स्थापित की गई । मध्यप्रदेष में यह पचमढ़ी में है ।

जैव मण्डलीय आरक्षित क्षेत्रों को स्थापित करने के पीछे निम्नलिखित उद्देष्य हैं -

(1) पौधों, जीवों और सूक्ष्म-जीवों की विभिन्नता व अखंडता को बनाये रखना ।

(2) पारिस्थितिकी संरक्षण तथा अन्य पर्यावरणीय पहलुओं संबंधी अनुसंधान को बढ़ावा देना, तथा

(3) षिक्षा, जागरूकता और प्रषिक्षण के लिए सुविधाएँ उपलब्ध कराना ।

राष्ट्रीय वन नीति

भारत में 1894 ई. से ही वन नीति लागू है । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1950 में ‘केन्द्रीय वन बोर्ड ;ब्मदजतंस ठवंतक व िथ्वतमेजतलद्धष् की स्थापना की गयी, जिसकी सिफारिषों के आधार पर 1952 में सरकार ने संषोधित राष्ट्रीय वन-नीति की घोषणा की । इस वन-नीति में कहा गया कि ‘अब वन कृषि के दास नहीं रह गये हैं वरन् वे कृषि के अपरिहार्य मित्र एवं उपमाता के समान हो गये हैं । कृषि भूमि की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए वन नितान्त आवष्यक हैं ।’’ राष्ट्रीय वन नीति, 1952 के अनुसार कम से कम 33.3: भू-भाग वनाच्छादित होना चाहिए। यह पहाड़ों पर 60ः तथा मैदानों में 20: होना चाहिए । सन् 1980 में भारत सरकार ने ‘वन संरक्षण अधिनियम’ बनाया। 1988 में इसे संषोधित कर और कठोर बना दिया।
इस नीति में देष के कुल क्षेत्रफल के एक-तिहाई (33.3:) क्षेत्र में वन-विस्तार का लक्ष्य निर्धारित किया गया । इस नीति के दो मौलिक उद्देष्य थे:
1. वन-संसाधनों का दीर्घकालीन विकास सुनिष्चित करना, तथा
2. निकट भविष्य में निर्माण कार्य हेतु, बढ़ती मांग को पूरा करना ।
नवीन राष्ट्रीय वन-नीति
7 दिसंबर, 1988 को भारत सरकार ने नवीन वन नीति की घोषणा की, जिसमें निम्नलिखित मौलिक उद्देष्यों को सम्मिलित किया गया -

1. पर्यावरण स्थिरता एवं सुधार ।

2. वन क्षेत्र के जीव-जन्तु एवं वनस्पति जैसे प्राकृतिक धरोहर की सुरक्षा ।

3. लोगों की बुनियादी आवष्यकताओं की पूर्ति करना ।

4. मृदा संरक्षण ।

5. मरूभूमि में बालुका स्तूप या रेत के टीले पर नियंत्रण स्थापित करना ।

6. सामाजिक वानिकी एवं वृक्षारोपण कार्यक्रमों का विस्तार ।

इस नवीन नीति के मुख्य विन्दु इस प्रकार हैं -

(i) पहाड़ी एवं नदियों के कटाव वाले क्षेत्रों में वन विस्तार करना ।

(ii) वनों की उत्पादकता में वृद्धि सुनिष्चित करना ।

(iii) पर्यावरण संतुलन के लिए वनों की कटाई रोकना ।

(iv) वन पर आधारित उद्योग की स्थापना को मान्यता देना, तथा

(v) ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों के लोगों के लिए वनों पर आवष्यक हक (चारा तथा अन्य छोटी-मोटी वन-उपज आदि के उपयोग के लिए) सुनिष्चित करना ।

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