(अध्ययन सामग्री): भूगोल - विश्व का भूगोल "हवाएँ"


अध्ययन सामग्री: विश्व का भूगोल


हवाएँ

एक स्थान से एक निश्चित दिशा को चलती हुई वायु (Air)  को हवाएँ -(Wind)  कहते हैं । यह एक प्रकार से हवा की धारा है जो उच्च दाब वायु क्षेत्र से निम्न वायु दाब क्षेत्रों की ओर चलती है । हमेशा ऐसा ही नहीं होता । हवाओं की दिशाओं को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख कारक निम्न हैं:-

1/ कोरिऑलिस बल

इसका नाम भूगोलवेत्ता जी.जी. कोरिऑ लिस के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने इसकी खोज की थी । इसे फेरेल का नियम भी कहते हैं । इस बल के कारण उत्तरी गोलोद्र्धीय हवाएँ प्रवर्तन की दिशा से दाँयीं ओर तथा दक्षिण गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाते हैं। फेरेल ने सबसे पहले कहा था कि सभी गतिशील वस्तुएँ (पवन एवं धाराएँ) उत्तरी गोलार्द्ध में अपनी दाहिने ओर तथा दक्षिण गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर विक्षेपित हो जाती हैं । यही कारण है कि हवाएँ टेढ़े मार्ग पर चलती हैं ।

2/ बॉयज बैलट नियम

यह देखा गया है कि विषुवत रेखा पर हवाओं की दिशा पृथ्वी की अक्षीय गति से लगभग नहीं के बराबर प्रभावित होती है । इसी को ध्यान में रखकर बॉयज बैलट ने अपने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि ‘‘जिस दिशा में हवा चल रही हो, यदि उस दिशा में मुख करके खड़ा हुआ जाए, तो उत्तरी गोलार्द्ध में निम्न वायु दाब बाँयी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दाहिनी ओर होगा ।

3/ घर्षण

पृथ्वी के धरातल की असमानताएँ तथा रूखापन हवाओं के दबाव में गतिरोध और अनियमितता उत्पन्न करके उसकी दिशा को प्रभावित कर देते हैं ।
हवाओं का वर्गीकरण - पृथ्वी पर बहने वाली हवाओं को मुख्य रूप से तीन बड़े भागों में बाँटा गया है - ये हैं:- पध् स्थायी पवन पपध् सामयिक पवन तथा पपपध् स्थानीय पवन ।
जैसा कि इनके नाम से ही स्पष्ट है, स्थायी हवाएँ वे होती हैं, जो सालभर चलती रहती हैं । सामयिक पवन, वे हवाएँ होती हैं, जो कुछ समय के लिए चलती हैं । जबकि स्थानीय हवाएँ, वे होती हैं, जो किसी स्थान विशेष के प्रभाव के कारण चलती हैं ।

अब हम इन तीन बड़े वर्गीकरण को विस्तार से देखेंगे -

(1) स्थायी पवन -

पृथ्वी पर स्थायी रूप से स्थित उच्च दाब एवं निम्न दाब कटिबन्धों के कारण जो हवाएँ लगातार उच्च दाब से निम्न दाब कटिबन्धों की ओर चलती हैं उन्हें ‘स्थायी हवाएँ’ कहते हैं । स्थायी हवाओं के निम्न तीन प्रकार हैं -

(i) व्यापारिक हवाएँ -ये हवाएँ विषुवत रेखीय निम्न दाब से उपोष्ण उच्च दाब के बीच सालभर चलती रहती हैं । इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि 30 अंश उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों से शून्य अंश अक्षांश की ओर वर्षभर लगातार बहने वाली हवाओं को ‘व्यापारिक हवाएँ कहते हैं । चूँकि इन हवाओं से पालयुक्त नाँव एवं जहाजों को चलाने में सुविधा होती थी, इसीलिए इन्हें व्यापारिक हवाएँ कहा गया ।
इन हवाओं के कारण पूर्वी तट पर भारी वर्षा होती है । हरिकेन नामक भंयकर तूफान इसी से संबंधित है ।

(ii)पछुआ हवाएँ - इन्हें पश्चिमी हवाएँ तथा विरूद्ध व्यापारिक हवाएँ भी कहा जाता है । ये हवाएँ उपोष्ण-वायु दाब कटिबन्ध से उपधु्रवीय निम्न वायु दाब कटिबन्ध की ओर चलती हैं । चूँकि ये हवाएँ प्रायः पश्चिम से चलती हैं, इसलिए इन्हें पछुआ हवाएँ कहा जाता है । अक्षांश के आधार पर कहा जा सकता है कि ये हवाएँ 30-35 अंश अक्षांशों के बीच प्रवाहित होती हैं ।

उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल की अधिकता के कारण पछुआ हवाएँ यहाँ अधिक जटिल हो जाती हैं । चूँकि ये हवाएँ सागरों के ऊपर से चलती है,ं इसलिए ये नमी से भरी होती हैं और महाद्वीपों के पश्चिमी भाग में भारी वर्षा करती हैं ।
दक्षिण गोलार्द्ध में समुद्र की अधिकता है । इसलिए यहाँ इन हवाओं की गति बहुत तेज़ हो जाती है, इसीलिए दक्षिण गोलार्द्ध में 40 अंश अक्षांशों के बीच ये हवायें तेज़ आवाज़ करती हुई बहती हैं, जिससे इसे ‘‘गरजता हुआ चालीसा’’ कहा जाता है ।

(iii)  धु्रवीय हवाएँ -  60 अंश-65 अंश और 90 अंश अक्षांशोंके बीच दो गोलाद्र्धों में स्थायी रूप से बहने वाली हवाओं को ‘धु्रवीय पवन’ कहते हैं ।

(2) सामयिक हवा-

जिन हवाओं में मौसम तथा समय के अनुसार परिवर्तन हो जाते हंै, उन्हें सामयिक हवा कहते हैं । ये हवाएँ निम्न प्रकार की होती हैं -

i/ मानसूनी हवाएँ -

इस शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द ‘‘मौसीम’’ से हुई है, जिसका अर्थ है-मौसम । ये हवाएँ मौसम के अनुसार अपनी दिशाएँ बदल देती हैं । वस्तुतः ये एक प्रकार से स्थल समीर एवं जल समीर का व्यापारिक रूप ही हैं । जल एवं स्थल की स्वभावगत विशेषता के कारण इन दोनों के तापमान में अन्तर आने से हवा के दबाव में जो अन्तर आता है, वही मानसून के लिए जिम्मेदार है ।

जब सूर्य उत्तरायण में होता है, तब स्थल पर निम्न दाब और समुद्र पर उच्च दाब का क्षेत्र बन जाता है । ऐसी स्थिति में हवा महासागर से स्थल की ओर बहने लगती है । इसे ही ‘दक्षिम-पश्चिम ग्रीष्मकालीन मानसून’ कहते हैं ।

ठीक इसके विपरीत जब सूर्य दक्षिणायन हो जाता है, तब शीतकालीन उत्तरी-पूर्वी मानसूनी हवाएँ बहने लगती है । ज्ञातव्य है कि भारत में मानसूनी हवाओं द्वारा ही वर्षा होती है ।

 ii/समुद्रीय समीर

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह वह हवा है, जो समुद्र से धरातल की ओर बहती है । वस्तुतः होता यह है कि दिन में जल की अपेक्षा स्थल जल्दी गर्म हो जाता है । इसलिए स्थल पर निम्न दाब बन जाता है । इसके कारण समुद्र से ठण्डी हवाएँ स्थल की ओर बहने लगती हैं । समुद्र समीर प्रायः दिन में ही प्रवाहित होता है ।

iii/स्थलीय समीर

यह रात को बनता है । रात में जल की अपेक्षा स्थल जल्दी ठण्डा हो जाता है । अतः समुद्र पर निम्न दाब तथा धरातल पर उच्च दाब बन जाता है । इसके कारण हवाएँ स्थल से समुद्र की ओर चलने लगती हैं ।

(3) स्थानीय पवन -

जिन हवाओं का जन्म स्थानीय स्तर पर तापमान और वायु दाब में अन्तर के कारण होता है, उन्हें ‘स्थानीय हवाएँ’ कहते हैं । इनका प्रभाव क्षेत्र छोटा होता है तथा ये क्षोभ मंडल की निचली परतों तक ही सीमित रहती हैं।
कुछ क्षेत्रों में बहने वाले स्थानीय पवनों के नाम निम्न हैं -

  •  लू - उत्तरी भारत और पाकिस्तान में.
  •  शिलूक - अमेरीका एवं कनाड़ा में.
  •  मिस्ट्रल - ठण्डी धु्रवीय हवा.
  •  हरमटल - अफ्रीका का सहारा मरूस्थल.
  •  सीयुम - अरब और सहारा रेगिस्तान.
  •  ब्लिजाल्ड - हिम झंझावात (साइबेरिया, कनाड़ा और अमेरीका)

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