(अध्ययन सामग्री): भूगोल - विश्व का भूगोल "पृथ्वी"


अध्ययन सामग्री: विश्व का भूगोल


पृथ्वी

पृथ्वी की आयु - पृथ्वी कैसे बनी और कब बनी, इस बारे में प्राचीन काल से ही विद्वान अपनी-अपनी कल्पनाएँ प्रस्तुत करते रहे हैं । पृथ्वी की आयु जानने के लिए मुख्यतः जो आधार अपनाये गये हैं, वे हैं -

(1) खगोलीय साक्ष्य - यह साक्ष्य इस तथ्य पर आधारित है कि सूर्य एवं अन्य प्रकाशवान ग्रह (तारे) अपनी ऊर्जा हायड्रोजन को हिलियम में परिवर्तित करके प्राप्त करते हैं । इस विधि के अनुसार पृथ्वी की आयु 45 सौ करोड़ वर्ष मानी जाती है ।

(2) भू-वैज्ञानिक साक्ष्य - इसके अंतर्गत समुद्र की लवणता को आधार बनाकर पृथ्वी की आयु का निर्धारण किया जाता है । इसके अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति सागरों की उत्पत्ति के 3 करोड़ वर्ष बाद हुई थी । इसके अंतर्गत पृथ्वी की उत्पत्ति 11 करोड़ वर्ष पूर्व मानी गई है ।

(3) अपरदन आधार - इस संकल्पना के अनुसार पृथ्वी की आयु 10.56 अरब वर्ष निर्धारित की गई है । यह निर्धारण अपरदन दर एवं अपरदन की काल मात्रा पर आधारित है ।

(4) रेडियो एक्टिव विधि - यूरेनियम एक निश्चित समय में सीसे में परिवर्तित होता रहता है । अनुमान है कि यूरेनियम का 1.67 भाग 10 करोड़ वर्षों मैं सीसे में बदल जाता है । इस प्रकार किसी चट्टान की आयु की गणना यूरेनियम व सीसे की मात्रा के अनुपात के आधार पर की जाती है । उपर्युक्त आधार पर पृथ्वी की आयु 2 से 3 अरब वर्ष के बीच मानी जाती है ।

(5) जीव वैज्ञानिक साक्ष्य - इसका आधार चट्टानों के बीच में पाये जाने वाले जीवाश्म हैं । जीवाश्म का ही अध्ययन करके चाल्र्स डार्विन, लैमार्क तथा विलियम स्मिथ आदि वैज्ञानिकों ने जीव के क्रमिक विकास की व्याख्या की है । इन वैज्ञानिकों ने माना है कि एककोशीय अमीबा से वर्तमान जीवन को बनने में 4 अरब वर्ष लगे हैं ।

पृथ्वी की उत्पत्ति -

यूँ तो पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई, इस बारे में भी कई मान्यताएँ हैं । किन्तु सबसे अधिक मान्य परिकल्पना यह है कि पृथ्वी की उत्पत्ति लगभग 4.6 करोड़ वर्ष पूर्व धूल व गैस के विशाल बादल से हुई है । इस परिकल्पना के अनुसार ये विशाल बादल भँवर की तरह घूम रहे थे । बाद में अपने ही गुरुत्त्व के प्रभाव के कारण ये बादल सिकुड़ते गये और धीरे-धीरे उसका आकार चिपटे हुए डिस्क के समान हो गया । जैसे-जैसे इस बादल का आकार छोटा होता गया, वैसे-वैसे कोणीय संवेग संरक्षण नियम के अनुसार इसके घूमने की गति बढ़ती गई । गति की तीव्रता के कारण यह बादल एक न रहकर कई खण्डों में विभक्त हो गया । नए खण्डों में विभक्त होने के कारण बाद में यह बादल सूर्य के रूप में बदल गया । अलग हुए खण्डों से ग्रह बने । इस प्रकार सौर मण्डल की उत्पत्ति हुई ।

पृथ्वी का इतिहास -

पृथ्वी की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, यह एक पेचीदा प्रश्न है । लेकिन इसका विकास कैसे हुआ, यह बिल्कुल ही अलग प्रश्न है । इसके लिए पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास को मुख्यतः चार भागों में बाँटकर देखा जा सकता है । ये है -

(1) प्री केम्बीयन महाकल्प - यह युग पृथ्वी के जन्म से 50 करोड़ वर्ष तक का माना जाता है । इस अवधि में पृथ्वी मूलतः गैस से पिघली हुई अवस्था में आई । पृथ्वी के ठण्डा होने पर महीन ठोस परत बनी । चूंकि इस युग में पृथ्वी पर ज्वालामुखी की क्रियायें अधिक हो रही थीं, इसलिए स्वाभाविक है कि इस काल में पृथ्वी पर किसी भी जीवन की आशा नहीं की जा सकती । यही कारण है कि इस महाकल्प के चट्टानों में जीवाश्म नहीं पाये जाते । इस महाकल्प में अवसादी चट्टानों का रूपान्तरण हुआ ।

(2) पैल्योजोइक महाकल्प- यह युग 57 करोड वर्ष पूर्व से 22 करोड़ वर्ष पूर्व तक का माना जाता है । इस महाकल्प में पहली बार जीवन के चिन्ह उभरे । इस युग के आरम्भ को केम्ब्रीयन महाकल्प कहा जाता है । विन्ध्यांचल पर्वत का निर्माण इसी काल के दौरान हुआ था ।

इस महाकल्प के पांचवे काल को कार्बनीफेरस काल कहा जाता है । इस काल में तापमान और आर्द्रता में वृद्धि होने के कारण भारी वर्षा हुई, जिससे भूमि का एक बड़ा भाग कच्छ  बन गया । इसीलिए घने जंगल भी ऊग आये । इसी युग में वन प्रदेश कोयले के क्षेत्रों में तब्दील हुए ।

(3) मैसोजोइक महाकल्प - यह 25.5 करोड़ वर्ष से 7 करोड़ वर्ष तक का काल है । इस महाकल्प में जलवायु गर्म एवं शुष्क हुई, जिसके कारण अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने लगी । यह डायनासोरों का युग था, जिसमें बड़े एवं रेंगने वाले जीवों का विकास हुआ । इसी के एक काल को जुरासिक काल भी कहा जाता है । इसी शब्द को लेकर ‘जुरासिक पार्क’ नामक फिल्म बनी थी । यह युग 19.5-13.6 करोड़ वर्ष का युग रहा है ।

इसी महाकल्प में लावा जमा होने के कारण भारत के दक्खन ट्रेक का निर्माण हुआ ।

इसी कल्प के अन्त तक डायनासोर समाप्त हो गये ।

(4) सेनोजोइक महाकल्प - यह काल 7 करोड़ वर्ष से 10 लाख वर्ष तक का माना गया है । चूँकि इस काल में पृथ्वी पर स्वाभाविक रूप से बहुत तेजी से परिवर्तन होने लगे थे, इसीलिए इसे कई भागों में बांटना पड़ा ।

इस महाकल्प के पैलियोसीन युग में राकी पर्वतमालाएं बनीं । वर्तमान घोड़े के प्राचीन रूप का जन्म भी इसी काल में हुआ ।

इथोसीन युग में स्तनधारी जीव, फलयुक्त पौधे और अनाज अस्तित्त्व में आये ।

ओलिगोसीन युग में मानवाय कपि अस्तित्त्व में आया, जिससे आज के मानव का जन्म हुआ है ।

मायोसीन युग में व्हेल मछली तथा बन्दर जैसे स्तनधारी पैदा हुए ।

10 लाख वर्ष से 10 हजार वर्ष पूर्व तक का काल ‘हिम युग’ के नाम से जाना जाता ह, क्योंकि इस युग तक आते-आते पृथ्वी पर तापमान बहुत कम हो गया था, जिसके कारण अधिकांश हिस्से पर बर्फ की चादर जमा हो गई थी । बर्फ की अधिकता के कारण बड़े-बड़े जीव नष्ट हो गये तथा जो बचे, उनके शरीर पर बाल ऊग आये । वातावरण की अनुकूलता के कारण इस युग में पक्षियों तथा स्तनधारी जीवों का तेजी से विकास हुआ ।

10 हजार वर्ष पूर्व से अब तक का काल होलोसीन युग के नाम से जाना जाता है । इस युग की विशेषता है - प्रकृति एवं मनुष्य के पारस्परिक संबंधों का विकसित होते जाना ।

औद्योगिकीकरण तथा जनसंख्या के निरन्तर दबाव के कारण प्रकृति और मनुष्य के बीच का यह स्वाभाविक संतुलन धीरे-धीरे नष्ट हो रहा है । वायुमण्डल में कार्बनडायाक्साइड की मात्रा बढ़ने से लगातार तापमान में वृद्धि हो रही है । इससे एक बार फिर से अंटार्काटिक प्रदेशों के पिघलने का खतरा पैदा हो गया है । अनेक जहरीली गैसों के कारण वायुमण्डल की ओजोन की परत फटकर लगातार फैल रही है ।

वनस्पति की लाखों प्रजातियां तो वन्य जीवन डायनासोर की तरह विलुप्त हो गई हैं । इससे प्रकृति एवं जीवों की श्रृंखलाएं तथा एक-दूसरे से जुड़े हुए संबंध भी बाधित हुए हैं ।

नदियों का प्रदूषण समुद्री जीवों के विनाश का कारण बन रहा है । ऐसी स्थिति में यह आशंका करना, बहुत गलत नहीं होगा कि यदि पर्यावरण में पैदा किये जा रहे इस असन्तुलन को रोका नहीं गया तो 50 करोड़ वर्ष से धीरे-धीरे विकसित होती आ रही इस पृथ्वी का वर्तमान स्वरूप खतरे में पड़ जायेगा।

पृथ्वी की आन्तरिक संरचना

पृथ्वी के ऊपरी भाग में व्याप्त वायुमण्डल में तो प्रवेश करना संभव है और मनुष्य बृहस्पति ग्रह तक की यात्रा कर आया है । लेकिन पृथ्वी के ठोस चरित्र के कारण उसके अन्दरूनी भागों में पहुंचना संभव नहीं हो सका है । फिर भी जिन साक्ष्यों के आधार पर अनुमान लगाया जा सका है, वे साक्ष्य हैं -

(1) उच्च ताप व दबाव - यह स्पष्ट हो चुका है कि पृथ्वी के निचले स्तर पर अधिक तापमान व दबाव है । पृथ्वी के कोर का तापमान लगभग दो हजार सेन्टीग्रेड होता है । पृथ्वी के इस अन्दरूनी भाग में उच्च तापमान के लिए आन्तरिक शक्तियों का सक्रिय रहना, रेडिया एक्टिव पदार्थों का अपने आप ही खंडित होते जाना, रासायनिक क्रियाओं तथा अन्य स्रोतों को उत्तरदायी माना जाता है ।

पृथ्वी पर प्रकट होने वाले गर्म पानी के झरने भी इस बात को स्पष्ट करते हैं कि इसके आन्तरिक भाग में बहुत अधिक तापमान है ।

यह माना जाता है कि पृथ्वी के गहरे भाग के प्रति 32 मीटर जाने पर औसतन 1 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान में वृद्धि हो जाती है ।

ज्वालामुखियों का विस्फोट भी बताता है कि पृथ्वी के गर्भ में पिघला हुआ गर्म पदार्थ है, जिसे मैग्मा कहते हैं ।

हालांकि अधिक तापमान के कारण होना तो यह चाहिए था कि पृथ्वी के अन्तरतम भाग में उपस्थित पदार्थ तरल या गैस अवस्था में हो, किन्तु पृथ्वी का कोर भाग इसके विपरीत ठोस है । इसका कारण यह है कि गहराई बढ़ने के साथ-साथ दबाव भी बढ़ता है, जिससे तरल एवं गैसीय पदार्थ ठोस अवस्था में आ जाते हैं ।

(2) भूकम्प तरंगें - भूकम्प के समय पैदा होने वाली तरंगें जब किसी भी माध्यम से गुजरती हैं, तो माध्यम के स्वरुप के अनुसार उनकी गति एवं दिशा में परिवर्तन हो जाता है । इन तरंगों के इस व्यवहार का अध्ययन करके पृथ्वी की आन्तरिक संरचना के बारे में अनुमान लगाया जाता है ।

(3) उल्का पिंड - वर्तमान में पृथ्वी पर कई बड़े उल्कापिंड हैं, जो इसी युग में पृथ्वी की गुरुत्त्वाकर्षण की चपेट में आकर यहाँ आ गिरे थे । हालांकि इन पिण्डों की बाह्य परत तो धीरे-धीरे क्षरण के कारण नष्ट हो गई है, किन्तु उनका आन्तरिक कोर बचा हुआ है । इन पिण्डों के कोर के आधार पर भी पृथ्वी के आन्तरिक भाग की कल्पना की जाती है ।

पृथ्वी की आन्तरिक संरचना

पृथ्वी की आन्तरिक संरचना को 3 भागों में विभाजित किया गया है -

(1) बाह्य पटल - इसकी मोटाई पृथ्वी के धरातल से लेकर अन्दर की ओर 100 किलोमीटर तक मानी गई है ।

  • पृथ्वी की यह बाह्य परत मुख्यतः अवसादी पदार्थों से बनी हुई है ।
  • बाह्य पटल पृथ्वी के कुल आयतन का मात्र आधा प्रतिशत ही है ।

(2) मेंटल - यह पृथ्वी के अन्दर 100 किलोमीटर से लेकर 29 सौ किलोमीटर के बीच में स्थित है ।

  • यह पृथ्वी के कुल आयतन का 16 प्रतिशत है ।

(3) कोर - पृथ्वी के अन्दर 29 सौ से 64 सौ किलोमीटर के मध्य के भाग को पृथ्वी का कोर कहा जाता है।

  • इसके केन्दीय कोर में उच्च घनत्त्व वाले सबसे भारी पदार्थ मौजूद हैं । यह मुख्यतः निकिल व आयरन से बना हुआ है ।
  • पृथ्वी के कुल आयतन का 83 प्रतिशत भाग कोर का है ।

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