(अध्ययन सामग्री): भूगोल - विश्व का भूगोल "वर्षा"


अध्ययन सामग्री: विश्व का भूगोल


वर्षा

जब बादलों के भीतर संघनन की प्रक्रिया बहुत तेज़ी से होने लगती, तब वर्षा होती है ।

वर्षा के मुख्य पाँच प्रकार हैं -

(1)  वर्षा - इसके अन्तर्गत जल की बूंदें पृथ्वी पर गिरती हैं । इन बूंदों का आकार आधे मिलीमीटर से लेकर पाँच मिलीमीटर तक हो सकता है । बरसात के दिनों में हम सभी इसे देखते हैं ।

(2) फुहार - यह वर्षा का एक अच्छा और सुहावना रूप है । जब पानी की बूंदों का आकार आधे मिलीमीटर से भी कम हो जाता है, तो वजन की कमी के कारण ये छोटे-छोटे कण हवा के साथ इधर-उधर हिलने लगते हैं । सामान्यतः फुहार स्तरीय एवं कपास स्तरीय मेघों द्वारा होती है ।

(3) सहिम वर्षा - जब जल की बूंदों के साथ-साथ हिम के छोटे-छोटे कण भी बरसने लगें, तो उसे सहिम वर्षा कहते हैं ।

(4) हिमपात - जब संघनन जमाव बिन्दु से नीचे चला जाता है तो जल के वाष्प हिम के छोटे-छोटे कणों में होते हुए चले जाते हैं । फिर ये छोटे-छोटे कण आपस में मिलकर विभिन्न आकारों के रूप में पृथ्वी पर गिरने लगते हैं । यह एक प्रकार से हिम के कणों की वर्षा है ।

(5) ओलावृष्टि - जब बहुत तीव्र संघनन के कारण हिम के गोले बन जाए और पृथ्वी पर गिरने लगें, तो इसे ओलावृष्टि कहते हैं । सामान्यतः आलोवृष्टि कपासी मेघों से होती है ।

वर्षा के वैश्विक क्षेत्र -

यूँ तो विश्व में वर्षा के क्षेत्रों का निर्धारण करना बहुत ही संशलिष्ट काम है, क्योंकि किसी भी स्थान पर वर्षा का होना कई स्थानीय कारकों पर निर्भर करता है । फिर भी इसके बारे में कुछ क्षेत्रीय स्वरूप तैयार किये गये हैं, जो इस प्रकार हैं -

(1) भूमध्यरेखीय क्षेत्र - इन क्षेत्रों में सर्वाधिक वर्षा होती है । ऐसा होने का कारण है - यहाँ उच्च दाब का होना, यहाँ की हवाओं में अधिक नमी धारण करने की क्षमता का होना तथा इस क्षेत्र का विशाल समुद्र के निकट होना ।

(2) इसके विपरीत धु्रवों पर बहुत कम वर्षा होती है, क्योंकि वहाँ के वायु का तापमान कम होता है ।

(3) मध्य अक्षांश दो चरमों के बीच स्थित है । इसलिए यहाँ वर्षा का विवरण भी जटिल है । इन दोनों गोलाध्द्र्धों में जहाँ पछुवा हवाओं से वर्षा होती है वहीं चक्रवाती ट्रेंड भी है ।

(4) वर्षा का पैटर्न पर्वतमालाओं से भी अत्यन्त प्रभावित होता है । पर्वतमालाओं के ढ़लानों में जहाँ अधिक वर्षा होती है, वहीं उसके ठीक पृष्ठ भाग में वर्षा नहीं होती, जिसे ‘वृष्टिछाया’ कहते हैं ।

(5) स्थानीय स्तर पर वर्षा को ऊँचाई भी प्रभावित करती है । सामान्यतः दो किलोमीटर ऊँचाई तक ऊँचा बढ़ने के साथ-साथ वर्षा में भी वृद्धि होती है । किन्तु दो किलोमीटर से अधिक ऊँचे होने पर वायु में
ठण्डक की उपस्थिति के कारण वर्षा कम होने लगती है ।

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