सामान्य अध्ययन मुख्य परीक्षा ऑनलाइन प्रशिक्षण कार्यक्रम का (Sample Material): पत्र II - भारतीय संस्कृति एवं विरासत (भाग - 1)
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पत्र II - भारतीय संस्कृति एवं विरासत, विश्व का इतिहास एवं भूगोल तथा समाज
भारतीय संस्कृति एवं विरासत (भाग - 1)
भारतीय संस्कृति: एक परिचय संस्कृति बोध
संस्कृति क्या है?
संस्कृति शब्द संस्कृत की ‘कृ’ धातु से ‘क्टिन’ प्रत्यय एवं ‘सम’ उपसर्ग को जोड़कर बना है। समकृक्तियाँ संस्कृति। वास्तव में संस्कृति शब्द का अर्थ अत्यंत ही व्यापक है।
यूनेस्को के अनुसार ‘‘संस्कृति को आमतौर पर कला का रूप माना जाता है। हम नैतिक मूल्यों और मानवीय सम्बंधों में लोगों के व्यवहार को संस्कृति से जोड़ते हैं। इसे किसी समाज या किसी सामाजिक समूह के हित में किए जाने वाले कार्य, व्यवहार और प्रवृत्ति से भी उपलक्षित किया जाता है। संस्कृति से हमारा तात्पर्य जीवन स्तर, निवास और वेशभूषा, भौतिक अनुशीलन से है। हम भाषा, विचार, कार्य, की संस्कृति से इसका आकलन करते हैं।’’ रेडफील्ड के अनुसार, ‘संस्कृति, कला और वास्तुकला में स्पष्ट होने वाले परम्परागत ज्ञान का वह संगठित रूप है जो परम्परा के द्वारा संरक्षित होकर मानव-समूह की विशेषता बन जाता है।’’
संस्कृति मनुष्यों के समुदाय में निहित होती है और इसका निकटतम सम्बंध उच्चतम मूल्यों से होता है। समझने के स्तर पर इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि किसी समाज में निहित उच्चतम मूल्यों की चेतना, जिसके अनुसार वह समाज अपने- जीवन को ढालना चाहता है, संस्कृति कहलाती है। यह परिभाषा सुकरात के तर्कों के सामने भले न ठहर सके, किंतु इसने हमें एक व्यापक सिद्धांत दिया है, जिसमें उन सभी अभिप्रायों का अंश है, जिनमें संस्कृति शब्द का उपभोग किया जाता है।
सामाजिक मूल्य
भारत ने भी सभ्यता की महायात्रा में शामिल होकर एक लम्बा मार्ग तय किया है। इसकी निरंतरता ने जिस ऐतिहासिकता से इसे अलंकृत किया है, वह भारतीय सभ्यता को बहुत ऊंचा स्थान प्रदान करती है। यही वजह है कि भारत की प्रागैतिहासिक सभ्यता से प्रारंभ कर वर्तमान सभ्यता को काल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। वास्तव में जब हम भारत के सांस्कृतिक इतिहास की ओर देखते हैं तो पाते हैं कि विभिन्न मतभेदों के बावजूद भारतवासियों के विचारों, भावनाओं और रहन-सहन के तरीकों में एक बुनियादी एकता है, जो राजनीतिक नक्षत्रों के बदलने से घटती-बढ़ती तो है, किंतु कभी समाप्त नहीं होती। अनेक बार भीतरी और बाहरी अलगाववादी शक्तियों ने इस एकता को नष्ट करने का भय व भ्रम उत्पन्न किया, किंतु एक रहने की भावना ने विरोधी प्रवृत्तियों और आंदोलनों को एक समन्वयात्मक संस्कृति में लपेट लिया।
हमारी संस्कृति की प्रकृति यही रही है कि इसने सीमाओं को कभी स्वीकार नहीं किया। उसने एकता के लिए संघर्ष किए हैं। यह संस्कृति जीवन की प्रयोगशाला का साधारण यंत्र मात्र नहीं है। न वह केवल पाषाण-मात्र है, जिसकी बनी हुई चक्की के दोनों पार्टी से वैदिक ऋषि की माता अन्न पीसती थी और न ही यह संस्कृति वह चरखा है, जिसमें अनेक लोग अपनी प्रवृत्तियों को मूर्तिमान देखते हैं। सभ्यता ने अनेक रूप धारण किए हैं-वह दूसरों से समय-समय पर के रूप में ग्रहण की गई है। हमारे सामाजिक और धार्मिक विश्वास समय के -प्रत्येक युग की सभ्यता के साथ बदलते रहे हैं।
बीसवीं सदी के प्रारंभ तक इतिहासकारों का मत रहा है कि भारत में संस्कृति की द्वितीय अवस्था, लगभग 1500 वर्ष ईसा पूर्व आर्यों के आगमन के बाद प्रारंभ हुई, इसलिए वह भारतीय संस्कृति प्राचीन संस्कृतियों में सबसे नवीन मानी जाती थी। किंतु इस सदी के चैथे दशक में भारत के पुरातत्व विभाग ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खोज करके यह प्रमाणित कर दिया है कि लगभग 5000 वर्ष पूर्व तक सिंधु घाटी में सभ्यता विद्यमान थी और यह सिर्फ सिंधु घाटी तक ही सीमित नहीं थी, वरन् देश के अन्य भागों में भी इसका विस्तार था। चूकि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की मोहरों पर अंकित चित्रलेखों का अभी तक अर्थ नहीं निकाला जा सका है, इसलिए सिंधु घाटी के प्राचीन निवासियों के मानसिक ओर आध्यात्मिक जीवन के सम्बंध में कम ज्ञात है। प्राप्त सामग्री के आधार पर यह निष्कर्ष अवश्य निकाला गया है कि उनके धार्मिक विश्वास और व्यवहार कुछ सीमा तक हिंदुत्व की झलक देते हैं।
ईसा के लगभग 1500 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी की सभ्यता के विनाश के बाद उत्तर-पश्चिम अप्रवासी आर्यों ने उत्साह एवं जीवन शक्ति से भरपूर नई संस्कृति की नींव रखी। ये आर्य यद्यपि भौतिक सभ्यता में उतने आगे नहीं थे, लेकिन इनका आध्यात्मिक स्तर काफी ऊपर था। इन्होंने न तो मंदिरों का निर्माण किया और न ही मूर्तियों की पूजा की। वस्तुतः इन्हें सत्य का मार्ग ज्ञात था। ऋग्वैदिक काल का सात्विक रूप काल चक्र प्रवर्तन के अनुसार विकसित हुआ और उत्तर-वैदिक काल (1000-600 ईपू) में ही हेतु मूल जानने, परमात्मा की खोज, पुनर्जन्म के सिद्धांत और पुनर्जन्म (आवागमन) के चक्र से मुक्ति की खोज की जिज्ञासा जागृत हुई।
संभवतः यही समय था जब पौराणिक परंपराएं ‘महाभारत‘ एवं ‘रामायण’ के रूप में स्थायित्व प्राप्त कर रही थीं। धर्म के क्षेत्र में भी नई-नई बातें सामने आ रही थीं, जो वैदिक धर्म से कई मायनों में भिन्न थीं और कई मामलों में विपरीत थीं। इन्हीं परिवर्तनों ने संभवतः बाद के हिंदू धर्म को एक सुनिश्चित आकार दिया।
किंतु कालांतर में हिंदू धर्म में अनेक विसंगतियां आ गईं। आडंबर बढ़ गया। कर्मकाण्डों की महत्ता सर्वाेच्च हो गई। परिणामस्वरूप हिंदू दर्शन और विचारधारा को चुनौती देने वाले मत भी सामने आए। इनमें जैन और बौद्ध प्रमुख थे। इन्होंने जो सिद्धांत प्रतिपादित किए, वे कर्मकाण्डों से अछूते एवं अनावश्यक बंधनों से मुक्त थे। इन मतों की लोकप्रियता ने हिंदू विचारकों को प्रेरित ही नहीं, वरन् बाध्य भी किया कि वे हिंदू धर्म में परिवर्तन लाएं। इस प्रयास में कई सुधार हुए।
जैन और बौद्ध मतों ने भी भारतीय संस्कृति को व्यापक रूप से प्रभावित किया। हालांकि वर्ण व्यवस्था में उतनी ढील तो नहीं आई, किंतु कुछ लचीलापन अवश्य आया। वैश्य जाति को कुछ महत्व दिया गया। पशु बलि में इन मतों के कारण ही कमी आई, शाकाहार का महत्व बढ़ा। कला, साहित्य, वास्तुकला भी इनके प्रभाव से बचे न रहे। तथापि, इन मतों की ही वजह से हिंदू धर्म परिष्कृत और परिमार्जित हुआ तथा एक बार फिर जन मानस पर अपनी पकड़ बनाने में सफल रहा।
गुप्तकाल हिंदू सभ्यता का स्वर्णिम काल माना जाता है। ए.एल. बाशम ने भी गुप्त वंश के उदय से लेकर हर्षवर्धन की मृत्यु तक के समय को भारतीय सभ्यता का गौरवशाली काल माना है। गुप्त काल में लौकिक साहित्य ने उल्लेखनीय प्रगति की। इसमें चिकित्सा, गणित और ज्योतिष शास्त्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण माने जाते थे। संस्कृत ने पुनः धर्म, शास्त्र और साहित्य की भाषा के रूप में अपना स्थान बना लिया था। इस काल के महान शिक्षा शास्त्रियों का न केवल भारत के बल्कि विश्व के विज्ञान जगत में ऊंचा स्थान था। आर्यभट्ट, वाराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त के गणित और ज्योतिष में, चरक और सुश्रुत के चिकित्सा विज्ञान में किए गए शोधों ने दूसरे देश के वैज्ञानिकों का शताब्दियों तक मार्ग दर्शन किया तथा अरब और अन्य इस्लामी देशों के विज्ञान सम्बंधी विचारों पर सीधा तथा यूरोप पर अप्रत्यक्ष प्रभाव डाला।
लेकिन गुप्त शासकों के कमजोर होते ही राजनीतिक बिखराव प्रारंभ हो गया। हालांकि हर्षवर्धन ने साम्राज्य निर्माण की एक कमजोर कोशिश अवश्य की, लेकिन ह्रास न रुका। बाणभट्ट ने हर्षचरितकी रचना की, जिसकी सहायता से इस काल के बारे में जानकारी मिलती है।
आक्रमणकारी शक, हूण और गुर्जरों ने गुप्त साम्राज्य का अंत कर दिया और भारत में बस गए। ग्यारहवीं सदी तक ये जातियां संपूर्ण भारत में फैल गई थीं और इन्होंने प्राचीन बड़े राज्यों के अवशेषों पर अपने बहुत से छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए थे।
राजपूतों के अधीन शिल्पकला ने भी बहुत विकास किया। चित्तौड़, रणथंभौर, मांडू और ग्वालियर के किले तथा खजुराहो (बुंदेलखंड,) और भुवनेश्वर के मंदिर उनके यश के प्रमाण हैं। लेकिन इस काल में संस्कृति का प्रवाह उल्टा हो गया। कई तरह की सामाजिक बुराइयां सामने आ गईः जैसे बाल विवाह, बालिका वध, सती प्रथा आदि।
इस समय, दक्षिण भारत सभ्यता के अतिरेक तथा विदेशी आक्रमणकारियों के प्रभावों से मुक्त था। इसलिए वह उत्तर की भांति राजनीतिक फूट का शिकार नहीं हुआ। चालुक्यों, राष्ट्रकूटों, पल्लवों, चोलों और पांड्यों ने शक्तिशाली राज्यों की स्थापना की और आर्य संस्कृति जैसी संस्कृति को बढ़ावा दिया। दक्षिण में अनुकूल परिस्थितियों ने बौद्धिक जीवन को निष्क्रियता से बचा लिया। यहां यह काल धार्मिक विचारों के क्षेत्र में उल्लेखनीय आंदोलन और गतिविधियों के कारण महत्वपूर्ण बन गया।
भागवतपुराण की रचना तमिल भूमि में हुई। कांसे की ढलाई का कार्य भी यहीं प्रारंभ हुआ। दक्षिण भारत के इन राज्यों ने कला और वास्तुकला के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया। पल्लव शैली में बना मामल्लपुरम का मदिर पल्लव राजाओं की देन है। द्रविड़ शैली में राजराजा चोल ने तंजौर मंदिर का निर्माण करवाया। राष्ट्रकूटों की छत्रछाया में ऐलोरा का कैलाश मंदिर बना।
सामान्य तौर पर दक्षिण भारत के राज्यों में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच करीबी और सौहार्दपूर्ण सम्बंध देखने को मिला। बहमनी साम्राज्य के विघटन के बाद अस्तित्व में आए राज्यों ने भी उदार परंपरा कायम रखी। वस्तुतः दक्षिण में ही उर्दू साहित्यिक भाषा के रूप में विकसित हो पाई। हिंदू-मुस्लिम सौहार्द के सम्बंध में कश्मीर के राजा जैन-उल-अबीदीन का संदर्भ अपरिहार्य हो जाता है। हिंदू संस्कृति की व्यापक समझ हेतु संस्कृत की पुस्तकों का फारसी में अनुवाद कराने के अतिरिक्त उसने कला और हस्तशिल्प को भरपूर संरक्षण प्रदान किया। इसे हम सम्राट अकबर का अग्रगामी मान सकते हैं।
वास्तुकला भी उतनी ही विकसित हुई, जितनी अन्य विधाएं। हुमायूं का मकबरा, लाल किला, ताजमहल, बुलंद दरवाजा, जामा मस्जिद इत्यादि कुछ ऐसी इमारतें हैं, जो मुगलकालीन संस्कृति की परिचायक हें। आबिद हुसैन लिखते हें, ‘‘पर्शियन के साथ भारतीय मस्तिष्क के सहयोग तथा भारतीय पदार्थों के साथ साहसिक प्रयोगों ने एक नयी शैली को जन्म दिया, जिसमें विभिन्न तत्व पूर्ण समन्वय के साथ ऐसे मिले हुए हैं कि अब भारतीय और विदेशियों के रूप में उनका विश्लेषण यदि संभव भी हो तो वह कोई अर्थ नहीं रखता।’’
मुगल सम्राट जहांगीर के काल से ही यूरोपियनों का आगमन प्रारंभ हो गया था। व्यापार के नाम पर इनके केंद्र अलग-अलग बंदरगाहों पर स्थापित हुए।
जहां तक अंग्रेजों के सांस्कृतिक प्रभाव का प्रश्न है, भारतीय मानस पर उसकी विशेष छाप न पड़ी। रेलवे और टेलीग्राफ आदि के रूप में यांत्रिक विकास‘ ही पश्चिमी सभ्यता का एकमात्र पहलू था, जिसने लोगों में सामान्य तौर पर आश्चर्य एवं प्रशंसा के भाव पैदा किए। अंग्रेजी संस्कृति केवल कलकत्ता तथा कुछ अन्य शहरों में एक छोटे से समूह को छोड्कर शेष भारतीयों पर कोई प्रभाव दिखाने में असफल रही।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ऐसे प्रयास किए गए कि देश एकजुट रहे। सुधारों की गति तेज की गई। दलितों, पिछड़ों, महिलाओं की बेहतरी हेतु कानून बने। देश की अखंडता के लिए जाति, धर्म, भाषा की विभाजक शक्तियों को नियंत्रित करने की आवश्यकता महसूस हुई। विविधता में एकता का महामंत्र पुनः उद्घोषित हुआ। संस्कृति को अक्षुण्ण रखते हुए नये विचारों का भी स्वागत हुआ। आज का भारत एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जिसे हम संक्रमणकाल कह सकते हैं। आधुनिकता और परंपरा के सही संतुलन की आवश्यकता है।