(Sample Material) सामान्य अध्ययन (पेपर -1) ऑनलाइन प्रशिक्षण कार्यक्रम: भारतीय राजव्यवस्था एवं अभिशासन - "केन्द्र-राज्य संबंध"

सामान्य अध्ययन ऑनलाइन प्रशिक्षण कार्यक्रम का (Sample Material)

विषय: भारतीय राजव्यवस्था एवं अभिशासन

केन्द्र-राज्य संबंध

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भारत का संविधान अपने स्वरूप में संघीय है तथा समस्त शक्तियां (विधायी, कार्यपालक और वित्तीय) केंद्र एवं राज्यों के मध्य विभाजित हैं । यद्यपि न्यायिक शक्तियों का बंटवारा नहीं है ।
संविधान में एकल न्यायिक व्यवस्था की स्थापना की गई है, जो केंद्रीय कानूनों की तरह ही राज्य कानूनों को लागू करती है ।

यद्यपि केंद्र एवं राज्य अपने- अपने क्षेत्रों में प्रमुख हैं, तथापि संघीय तंत्र के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए इनके मध्य अधिकतम सहभागिता एवं सहकारिता आवश्यक है । इस तरह संविधान ने केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर विभिन मुद्दों पर व्यवस्थाएं स्थापित की हैं ।

केंद्र एवं राज्यों के संबंधों का अध्ययन तीन दृष्टिकोणों से किया जा सकता है-

विधायी संबंध

प्रशासनिक संबंध, एवं
वित्तीय संबंध ।
बिद्यम्बी मंबंद्य

संविधान के भाग ग्प् में अनुच्छेद 245 से 255 तक केंद्र-राज्य विधायी संबंधों की चर्चा की गई है । इसके अतिरिक्त कुछ अन्य अनुच्छेद भी इस विषय से संबंधित हैं । किसी अन्य संघीय संविधान की तरह भारतीय संविधान भी केंद्र एवं राज्यों के बीच उनके क्षेत्र के हिसाब से विधायी शक्तियों का बंटवारा करता है । इसके अतिरिक्त संविधान पांच असाधरण परिस्थितियों के अंतर्गत राज्य क्षेत्र में संसदीय विधान सहित कुछ मामलों में रक्त विधानमण्डल पर केन्द्र्र के नियंत्रण की व्यवस्था करता है । इस तरह केंद्र-राज्य विधायी संबंधों के मामले में चार स्थितियां हैं-

केंद्र और राज्य विधान के सीमांत क्षेत्र,
विधायी विषयों का बंटवारा,
राज्य क्षेत्र में संसदीय विधान और,
राज्य विधान पर केंद्र का नियंत्रण ।

1. केंद्र और राज्य विधान का क्षेत्रीय विस्तार

संविधान ने केन्द्र्र और राज्यों को प्रदत्त शक्तियों के संबंध में स्थानीय सीमाओं को लेकर विधायी संबंधों को निम्नलिखित तरीके से परिभाषित किया है-

(1) संसद पूरे भारत या इसके किसी भी क्षेत्र के लिए कानून बना सकती है । भारत क्षेत्र में राज्य शामिल हैं । केंद्रशासित राज्य और किसी अन्य क्षेत्र को भारत के क्षेत्र में माना जाता है ।
(2) राज्य विधानमंडल पूरे राज्य या राज्य के किसी क्षेत्र के लिए कानून बना सकता है । राज्य विधानमंडल द्वारा निर्मित ‘‘ ‘ कानून को राज्य के बाहर के क्षेत्रों में लागू नहीं किया जा सकता, सिवाए तब जब राज्य और वस्तु में संबंध पर्याप्त हो
(3) केवल संसद अकेले अतिरिक्त क्षेत्रीय विधान बना सकती है । इस तरह संसद का कानून भारतीय नागरिक एवं उनकी विश्व में कहीं भी संपत्ति पर लागू होता है ।

यद्यपि संविधान ने क्षेत्रीय न्यायक्षेत्र के मामले पर संसद पर कुछ प्रतिबंध भी लगाए हैं । दूसरे शब्दों में, संसद के कानून लो क छ कर निम्मलिखित क्षेत्रों में लागू नहीं होंगे-

(1) राष्ट्रपति चार केंद्रशासित क्षेत्रों में शांति, उनति एवं अच्छी सरकार के लिए नियम बना सकते हैं । ये हैं- अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह, लक्षद्वीप, दादरा एवं नागर हवेली और दमन व दीव । इस प्रकार बनाया गया विनिमय, संसद के किसी अधिनियम के समान ही प्रयोज्य और प्रभावी होगा । इन संघशासित प्रदेशों के संबंध में इसे संसद के किसी अधिनियम को निरसित या संशोधित करने का भी अधिकार है ।
(2) राज्यपाल को इस बात की शक्ति प्राप्त है कि वह संसद के किसी विधेयक को सूचीबद्ध क्षेत्र में लागू न करे या उसमें कुछ विशेष संशोधन कर लागू करे ।
(3) असम का राज्यपाल संसद के किसी विधेयक को जनजातीय क्षेत्र (स्वायत्त जिला) में प्रयोज्य न कर या कुछ विशिष्ठ परिवर्तनों के साथ लाग कर सकता है । राष्ट्रपति को भी इस तरह की शक्ति जनजातीय क्षेत्रों (स्वायत्त जिलों ), मेघालय, त्रिपुरा एवं मिजोरम के लिए प्राप्त हैं ।

2. विधायी विषयों का बंटवारा

संविधान ने सातवीं अनुसूची में केंद्र एवं राज्य के बीच विधायी विषयों के संबंध में त्रिस्तरीय व्यवस्था की है-सूची I (संघ सूची ), सूची II (राज्य सूची) और सूची III (समवर्ती सूची) ।

(1) संघ सूची से संबंधित किसी भी मसले पर कानून बनाने की संसद को विशिड शक्ति प्राप्त है । इस सूची में इस समय 1०० विषय हैं (मूलतः 97) । जैसे-रक्षा, बैंकिंग, विदेश मामले, मुद्रा, आणविक ऊर्जा, बीमा, संचार, केंद्र- राज्य व्यापार एवं वाणिज्य, जनगणना, लेखा परीक्षा आदि ।
(2) राज्य विधानमंडल को सामान्य परिस्थितियों में राज्यसूची में शामिल विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है । इस समय इसमें 61 विषय (मूलतः 66 विषय) हैं-
जैसे-सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस, जन स्वास्थ्य एवं सफाई, कृषि, जेल, स्थानीय शासन, मल्ल पालन, बाजार आदि ।
(3) समवर्ती सूची के संबंध में संसद एवं राज्य विधानमंडल दोनों कानून बना सकते हैं । इस सूची में इस समय 52 विषय (मूलतरू 47) हैं । जैसे- आपराधिककानून प्रक्रिया, सिविल प्रक्रिया, विवाह एवं तलाक, जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन, बिजली, श्रम कल्पाण, आर्थिक एवं सामाजिक योजना, दवा, अखबार, पुस्तक एवं छापा प्रेस एवं अन्य । 42वे संशोधन अधिनियम 1976 के तहत 5 विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में शामिल किग गया । वे हैं- (क) शिक्षा, (ख) वन, (ग) नाप एवं तौल (ए) वन्य जीवों एवं पक्षियों का संरक्षण, (ड) न्याय का प्रशासन । उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के अतिरिक्त सभी न्यायालयों का गठन ।

अवशिष्ट सूची से संबद्ध विषयों (वे विषय जो तीनों सूचियों में सम्मिलित नहीं होते) पर विधान बनाने का अधिकार संसद को है।

इस अवशिष्ट शक्ति में अवशिष्ट करों के आरोपण के संबंध में विधान बनाने की शक्ति भी शामिल है ।

इस तरह स्पष्ट है कि विधायी एकता के लिए आवश्यक राष्ट्रीय महत्व के ऐसे मामलों को संघ सूची में शामिल किया गया । क्षेत्रीय एवं स्थायी महत्व एवं विविधता वाले विषयों को राज्य सूची में रखा गया, जिन विषयों पर संपूर्ण देश में विधायिका की एकरूपता वांछनीय है, परन्तु अनिवार्य नहीं, उन्हें समवर्ती सूची में रखा गया । इस तरह संविधान अनेकता में एकता की अनुमति देता है । अमेरीका में संघीय सरकार की शक्तियां संविधान में निहित हैं तथा अवशिष्ट शक्तियां राज्यों को प्रदान कर दी गयी हैं । आस्ट्रेलियाई संविधान में भी अमेरीका की तरह शक्तियों के एकल वर्णन की प्रकृति को अपनाया गया है । कनाडा में शक्तियों के आबंटन की दोहरी प्रकृति है अर्थात संघीय और प्रांतीय तथा अवशिष्ट शक्तियां केन्द्र्र में निहित हैं ।

भारत सरकार अधिनियम, 1935 त्रिस्तरीय महत्व के मामलों की व्यवस्था करता है अर्थात संघीय, प्रांतीय एवं समवर्ती । वर्तमान संविधान इस अधिनियम के मामलों को एक अंतर के साथ अपनाता है । खास शक्तियां उस समय न तो संघीय विधायिका को दी गईं, न प्रांतीय विधायिका कोय बल्कि भारत के गवर्नर जनरल को दी गईं । इस मामले में भारत ने कनाडा पद्धति को अपनाया । संविधान में संघ सूची को राज्य एवं समवर्ती सूची के ऊपर रखा गया है और समवर्ती सूची को राज्य सूची के ऊपर के ऊपर रखा गया है । संघ सूची एवं राज्य सूची के बीच टकराव होने की स्थिति में संघ सूची मान्य होगी । यही व्यवस्था संघ सूची व समवर्ती सूची के मामले में भी यही स्थिति होगी । समवर्ती एवं राज्य सूची में संघर्ष की स्थिति पर पूर्व वाली मान्य होगी ।

यदि समवर्ती सूची के किसी विषय को लेकर केंद्रीय कानून एवं राज्य कानून में संघर्ष की स्थिति आ जाए तो केंद्रीय कानून राज्य कानून पर प्रभावी होगा । लेकिन इसमें एक अपवाद भी है । यदि राज्य द्वारा बनाया गया कानून राष्ट्रपति की सिफारिश के लिए सुरिक्षत है और उसे राष्ट्रपति की सहमति मिल जाती है तो राज्य का कानून प्रभावी होगा, लेकिन संसद भी इस पर कानून बना सकती है।

3. राज्ट क्षेत्र में संसदीय विधान

केंद्र एवं राज्यों के बीच बंटवारे की उक्त व्यवस्था सामान्य काल में विधायी शक्तियों के बंटवारे के लिए होती हैं । लेकिन असामान्य काल में बंटवारे की योजना या तो सुधारी जाती है या स्थगित कर दी जाती है ।