यूपीएससी आईएएस (मेन) हिन्दी अनिवार्य परीक्षा पेपर UPSC IAS (Mains) Hindi Compulsory Exam Paper - 1993

यूपीएससी आईएएस (मेन) हिन्दी अनिवार्य परीक्षा पेपर UPSC IAS (Mains) Hindi Compulsory Exam Paper - 1993

Time allowed: 3 Hours Maximum Marks: 300

Candidates should attempt All question. The number of marks carried by each question is indicated at the end of the question. Answer must be written in Hindi unless otherwise directed.

1. निम्नलिखित विषयों में से किसी एक पर लगभग 300 शब्दों में निबन्ध लिखिएः 100

(क) भारतीय जनतंत्रा के मार्ग में संकट
(ख) भारत में जनसंख्या-वृद्धि रोकने के उपाय और साधन
(ग) हमारी सांस्कृति परम्परा का संरक्षण
(घ) ग्रामीण जीवन को सुधारने में टेलीविजन की भूमिका
(ङ) हमारे महानगरों में यातायात की भीड़-भाड़

2. निम्नलिखित अवतरण को ध्यान से पढ़िये और इसके बाद दिये गए प्रश्नों के उत्तर यथासम्भव अपने शब्दों में लिखिएः

जो व्यक्ति नवयुवकों की शिक्षा-दीक्षा के प्रति अपने उत्तरदायित्व का अनुभव करते हैं, वे इतिहास के विभिन्न युगों में शिष्यों को शिक्षित करने के विविध उपाय अपनाते रहे हें। इनमें सबसे प्रारम्भिक उपाय दण्ड देने का भय प्रदर्शित करना था। इसका तात्पर्य था कि मन्द-बुद्धि, असावधान या अन्यमनस्क छात्रा या तो शारीरिक दण्ड मिलने के कारण भयभीत रहता था अथवा उसे यह आशंका बनी रहती थी कि वह आगे चलकर किसी विशेष सुविधा से वंचित कर दिया जाएगा। इस प्रकार उन लोगों के लिए शिक्षा-प्राप्ति एक सीमा तक भय की भावना से जुड़ी हुई थी जो कुछ विषयों पर अधिकार करना कठिन समझते थे।
आगे चल कर शिष्यों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए इस आधार पर प्रोत्साहित किया जाने लगा कि इसके द्वारा उन्हें किसी प्रकार का लाभ मिलेगा। यह लाभ प्रायः दैनिक अथवा साप्ताहिक कार्य करने के लिए अंकों के रूप में दिया जाता था। प्रत्येक वर्ष की समाप्ति होने पर सर्वश्रेष्ठ विद्वान् को पुरस्कार देना भी इसी का एक रूपान्तर था। किन्तु इसका प्रभाव लगभग उतना ही अवसादजनक होता था जितना कि उस दण्डप्रधान प्राचीन पद्धति का, जो मन्द-बुद्धि होने पर उत्साही शिष्य की उपेक्षा करती थी।

उक्त दोनों शिक्षा-पद्धतियों पर विचार करने के पश्चात् ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन अध्यापक या तो अपने शिष्यों को कुछ सिखानें के लिए बाध्य करते थे अथवा उन्हें प्रलोभन देते थे। फिर भी, उन्नीसवीं शताब्दी में एक भ्ज्ञिनन प्रकार के अध्यापक का उदय हुआ जिसकी यह सुनिश्चित धारणा थी कि शिक्षा-दीक्षा अपने आप में स्वतः सम्पूर्ण तथा सार्थक होती है। उसका विचार था कि युवा अध्येता की प्रमुख अभिप्रेरणा न तो दण्ड से बचने की चिन्ता होनी चाहिए, और किसी प्रकार का पुरस्कार पाने की महत्वाकांक्षा होनी चाहिए। उनकी अभिप्रेरणा विशुद्ध शिक्षा की आकांक्षा-पूर्ति होनी चाहिए। इन अध्यापकों ने शिक्षा-प्राप्ति की प्रक्रिया को सुखद बनाने के लिए सर्वोत्तम उपाय खोज निकाले। और जहाँ ऐसा सम्भव नहीं था वहाँ उन्होंने यह प्रदर्शित किया कि कठोर परिश्रम करना व्यवहारिक दृष्टि से अध्येता के लिए किस प्रकार मूल्यवान होता है। प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में सुरूचि उत्पन्न करना ही शिक्षण-कला का मूल सिद्धान्त बन गया और यह सिद्धान्त अभी तक वैसा ही है।

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प्रश्नः

(क) शिक्षा-प्राप्ति की भावना किस प्रकार भय के साथ संयुक्त हो गई? 12
(ख) शिष्यों में प्रतिस्पर्घा जाग्रत करने के कौन-कौन से साधन थे? 12
(ग) उन्नीसवीं शताब्दी में कौन-सा प्रमुख परिवर्तन हुआ? 12
(घ) आज किस शिक्षा-पद्धति का प्रयोग किया जाता है? 12
(ङ) प्राचीन पद्धति की अपेक्षा आधुनिक शिक्षा-पद्धति किए आधार पर श्रेष्ठ है? 12

3. निम्नलिखित अवतरण का सारांश लगभग 200 शब्दों में लिखिए और उसे एक उपयुक्त शीर्षक भी दीजिए। सारांश यथासंभव आपके अपने शब्दों में हो। सारांश निर्धारित शीट पर ही लिखें और उसे उत्तर-पुस्तिका के अन्दर मजबूती से बाँध दें। सारांश में प्रुयक्त शब्दों की संख्या का उल्लेख उसके अन्त में कर दें। 60

विशेष टिप्पणीः सारांश के शब्द निर्धारित सीमा से बहुत अधिक या बहुत कम होने पर अंक काटे जाएँगे।

सामाज-कल्याण क्या है, इसकी पूर्ण तथा सांगोपांग परिभाषा देते समय मतभेद हो सकता है। किन्तु जहाँ तक इसके सार-तत्व को समझने की बात है, लोगों में एक प्रकार से सामान्य सहमति मालूम पड़ती है। इसका तात्पर्य एक व्यक्तिगत सेवा से है जो विशेष प्रकार की न होकर सामान्य प्रकार की होती है। इसका उद्देश्य है किसी ऐसे व्यक्ति की सहायता करना जो असमर्थता की भावना से दुःखी होने पर अपने जीवन का सर्वोत्तम सदुपयोग करना चाहता है, अथवा उन कठिनाइयों पर विजयी होना चाहता है जो उसे पराजित कर चुकी है, अथवा पराजय की आशंकाएँ उत्पन्न करती है। समाज-कल्याण की भावना दुर्बल की सहायता करती है तथा अपरिवर्तनीय स्थितियों के साथ सम्बन्ध सुधारने या सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न्न करती है। इसके सर्वोत्तम आदर्श का सही-सही निरूपण स्वास्थ्य-मंत्रालय के एक परिपत्रा द्वारा निर्दिष्ट वाक्य में किया गया है जिसका सम्बन्ध विकलांगों के कल्याण से हैं। इसके अनुसार कल्याणकारी सेवाओं का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि ‘‘सभी विकलांग व्यक्तियों को चाहे उनकी अक्षमता कुछ भी हो, सामुदायिक जीवन में हाथ बँटाने तथा उसके विकास में योग देने के लिए अधिक से अधिक अवसर दिए जाएँगें ताकि उनकी क्षमताओं का पूर्ण कार्यान्वयन हो सके, उनका आत्मविश्वास जाग सके, तथा उनके सामाजिक सम्पर्वक मजबूत बन सवेंक।’’

अभी हाल में प्रकाशित एक पुस्तक में कल्याणकारी सेवाएँ इस प्रकार परिभाषित की गई हैंµ ‘‘चिकित्सा- सम्बन्धी एवं वित्तीय सुविधाओं के अलावा जो अन्यान्य सुविधाएँ स्थानीय अधिकारियों द्वारा आय के आधार पर, अथवा शारीरिक, मानसिक या सामाजिक अक्षमता के आधार पर सहायता पाने के इच्छुक असमर्थ व्यक्तियों को दी जाती हैं।’’ ऐसी सहायता पाने वाले लोगों की सूची में सम्मिलित किए गए हैंµवृद्ध लोग, अन्धे, गूँगे, बहरे, स्थायी अथवा मानसिक रूप से असमर्थ लोग, परिवारिक जीवन से वंचित बालक, अविवाहित माताएँ, बेघरबार समस्यामूलक परिवार तथा ‘‘पददलित परित्यक्त’’ लोग। ध्यान देने की पहली बात है कि कल्याणकारी सेवाओं को ‘स्थानीय कहा गया है और इसे प्रायः समीचीन मान लिया गया है। इनका सम्बन्ध मुख्यतः पास-पड़ोस में रहने वाले लोगों की सेवाओं से है जो स्थानीय क्षेत्रों को जानते हैं और आवेदकों की स्थिति से परिचित होते हैं। दूसरी बात यह है कि चिकित्सा-सम्बन्धी देखभाल का इनमें समावेश नहीं किया गया क्या क्योंकि वह अत्यन्त विशेषीकृत होती है। वित्तीय सहायता का भी इसमें समावेश नहीं किया गया क्योंकि यह कोई व्यक्तिगत सेवा नहीं है। किन्तु याद रखना चाहिए कि व्यक्तिगत सहायता नहीं मिलने पर, अथवा उसका प्रयोगात्मक परामर्श नहीं मिलने पर, वित्तीय सहायता का लक्ष्य खटाई में पड़ सकता है। इसी प्रकार चिकित्सा-सम्बन्धी उपचार करते समय भी कल्याणकारी सेवा का ध्यान रखना चाहिए जैसा कि शल्य-क्रिया हेतु तैयार होने वाले अपंग शिशु अथवा किसी परिवार वाली माँ के सन्दर्भ में लक्षणीय है।

पाठशालाओं में, युवक-सभाओं में, तथा सेवानिवृत्त वैकदियों में भी कल्याण-कार्य करने की आवश्यकता है। वस्तुतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जिसे परिभाषित किया जा रहा है, वह कोई सेवा अथवा सेवाओं का समूहीकरण नहीं है। वह तो अनेक सेवाओं के भीतर विद्यमान एक तत्व है। सबसे जटिल-समस्या यह पता लगाने की है कि हम अपने क्रियाकलापों तथा उत्तरदायित्व का बँटवारा किस प्रकार करें ताकि सामान्य कल्याणकारी तत्व एवं विशेषीकृत तत्वµदोनों का समुचित निर्वाह किया जा सके।

यह कार्य सुचारू रूप से करते समय हमें देखना होगा कि कहीं साहसपूर्वक सहायता करने वालों के क्रियाकलापों से सहायता पाने वाले व्यक्ति का सर्वस्व नष्ट तो नहीं हो रहा है।

जिन लोगों के लिए कल्याणकारी सेवाएँ अपेक्षित है, वे लोग दो प्रकार के हैंµशारीरिक-मानसिक रूप से अक्षम तथा किसी ‘‘सामाजिक अस्थिरता’’ से ग्रस्त लोग। इस विभाजन में पहले प्रकार का वर्ग-भेद जितना स्पष्ट है उनता दूसरे प्रकार का वर्ग-भेद स्पष्ट नहीं है। ऐसा प्रतीत होगा कि सुविधा-वंचित बालक और गृहविहीन व्यक्ति इसमें सम्मिलित हैं। तब वे दुःखी विवाहित कहाँ जाएँगें जिनका विच्छेद नहीं हुआ है? अधिक कार्य भार से दबी वह माता कहाँ जाएगी जिसका परिवार अभी ‘समस्यामूलक’ नहीं बना? अधिक महत्त्व की बात यह है कि उन युवा दम्पतियों का क्या होगा जो किसी प्रकार की ‘सामाजिक विषमता’ से बचने के लिए पहले परिवार-नियोजन सम्बन्धी राय लेना चाहते हैं? स्पष्ट है कि विवाह-सम्बन्धी मार्ग-दर्शन तथा परिवार-नियोजन ऐसी सेवाएँ है जहाँ कल्याणकारी तत्व सचमुच अत्यन्त प्रबल है। किन्तु सबसे कठिन प्रश्न यह होगा कि क्या सरकार स्वयं इनका विनियोजन करे, अथवा इन्हें स्वयं-सवी संस्थाओं के उकपर छोड़ दे।

4. निम्नलिखित अवतरण का हिन्दी में अनुवाद-कीजिए। 20

The function of diplomacy is the management of the relations between independent states by process of negotiation. The professional diplomatist is the servant of the sovereign authority in this own country. In democratic countries, that sovereign authority is represented in the first place, by a majority of the Parliament, and in the second place by the Government or a Cabinet to whom that majority accords executive powers.

It may be true, as Rousseau contended, that ''the sovereign people" in democratic countries only exercise their soverignty during a general election, and that thereafter and for a period of some four or five years, it is only a preparation of the sovereign people (namely the majority, at the previous general election) who actually goern. It may be true also that even their governance and control is so indirect as to be merely vicarious, and that during the lifetime of any given Parliament of Administration, the majority may have shifted from one side to the other. To that extent representative government is based upon a fiction; yet it must be admitted that on the whole it is fairest and most convenient fiction that the brain of man has het been able to devise.

5. निम्नलिखित अवतरण का अंग्रेजी में अनुवाद कीजिएः 20

क्या ‘‘पिछड़ा हुआ’’ शब्द ‘‘अल्पविकसित’’ अथवा ‘‘अविकसित’’ शब्दों का पर्यायवाची है? ऐसा निश्चयपूर्वक मान लेने का एक रिवाज जैसा हो गया है। हम भले ही तत्सम्बन्धी विचार-विमर्श को आर्थिक जीवन तक सीमित रखना चाहें तथा ‘‘सांस्कृतिक पिछड़ेपन’’ जैसे सुझाव को बिल्कुल नकार देना चाहें, फिर भी इस मान्यता को स्वीकार करने में तर्व$-संगत कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। यह स्पष्ट है कि कोई मनुष्य ‘‘पिछड़े संसाधनों’’ की ओर संकेत करेगा। वैसे कुछ लेखक ‘‘अल्पविकसित लोगों’’ की चर्चा करने के लिए अवश्य लालायित हो सकते हैं। आजकल एक सामान्य रिवाज जैसा हो चला है कि ‘‘मानवीय’’ तथा ‘‘प्राकृतिक’’ संसाधनों पर परस्पर घुला-मिला दिया जाता है और किसी भी ऐसे देश का उल्लेख ‘‘पिछड़ा हुआ’’ या ‘‘अविकसित’’ देश के रूप में कर दिया जाता है जिसने अपनी अन्तर्निहित छिपी हुई धन-सम्पत्ति का पूरा-पूरा उपयोग नहीं किया हो। फिर भी प्राकृतिक संसाधनों का ‘‘अल्पविकास’’, तथा मनुष्यों का ‘‘पिछड़ापन’’µये दोनों बिल्कुल अलग-अलग स्थितियाँ हैं।

वास्तव में कुछ देश, जहाँ ‘‘पिछड़े हुए’’ मनुष्य निवास करते हैं, अपने अपर्याप्त प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से अत्यधिक विकसित हो गए हैं। इसके अतिरिक्त आर्थिक विकास सामाजिक पिछड़ेपन को और भी बिगाड़ सकता है। यह एक तथ्य है कि अनेक देशों में आर्थिक पिछड़ेपन की समस्या अधिक गम्भीर बना दी गई है। इसका कारण प्राकृतिक संसाधनों का ‘‘अल्वविकास’’ नहीं है। इसका कारण यह है कि वे देश बाजार की अनुकुल परिस्थितियों को देख कर पूर्णता और शीघ्रता से विकसित बनाए गए हैं। वहाँ उन निवासियों को छोड़ दिया गया है जो इस प्रक्रिया के भीतर अपनी साझेदारी निभाने में किसी प्रकार आयोग्य अथवा अनिच्छुक थे। उपनिवेशों का विकास करते समय यही वस्तु-स्थिति प्रकट होती है और साम्राज्यवादी व्यवस्था के विरुद्ध यह अत्यन्त गम्भीर आरोप है।

6. (क) निम्नलिखित मुहावरों तथा लोकोक्तियों में से किन्हीं पाँच के अर्थ लिखिए और उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिएः 20

(i) अंगारे उगलना
(ii) अधजल गगरी छलकल जाय
(iii) अपना उल्लू सीधा करना
(iv) का बरखा जब कृषि सुखाने
(v) कलेजा थामना
(vi) हाथ कंगन को आरसी क्या
(vii) दाल में काला होना
(viii) खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे
(ix) पसीना-पसीना होना
(x) मुँह में राम बगल में छुरी

(ख) निम्नलिखित युग्मों में से किन्हीं दो में दिये हुए शब्दों का इस प्रकार वाक्य में प्रयोग कीजिये कि युग्म के शब्दों का अन्तर यथासम्भव स्पष्ट हो जायः 10

(i) आवरण, अनावरण
(ii) श्रद्धा, भक्ति
(iii) महात्मा, संन्यासी
(iv) भ्रम, सन्देह

(ग) निम्नलिखित अभिव्यक्तियों में से किन्हीं पाँच के लिए एक-एक अपयुक्त समानार्थक शब्द लिखिएः 20
(i) जो दूसरों के पीछे-पीछे चलता हो
(ii) जो बिना बुलाए आ जाता हो
(iii) जो पहाड़ को धारण करता हो
(iv) जो अपने मार्ग से भटक गया हो
(v) जिसके माता-पिता न हों
(vi) जिसके पास करोड़ों रुपये हो
(vii) जो दूसरों का भाला करता हो
(viii) मिठाई बना कर बेचने वाला व्यक्ति
(ix) जिसके समान कोई दूसरा न हो
(x) जहाँ से अनेक मार्ग चारों ओर जाते हैं

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