(The Gist of Kurukshetra) पंचायती राज का अवलोकन [JULY-2018]


(The Gist of Kurukshetra) पंचायती राज का अवलोकन [JULY-2018]


पंचायती राज का अवलोकन

अधिकार के हस्तांतरण से अभिप्राय है किसी भी संस्था को चलाने हेतु लिए जाने वाले महत्वपूर्ण निर्णयों, प्रशाशनिक तथा वित्तीय मामलों से संबंधित अधिकार सर्वोच्च स्तर से नीचे के स्तर पर हस्तांतरित करना और इस सारी प्रक्रिया के फलस्वरूप न केवल उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना, बल्कि सौंपे | गए काम स्थानीय जरूरतों और प्राथमिकताओं के हिसाब से करने | की उन्हें आजादी साथ ही उन्हें जवाबदेह भी बनाना। सच पूछिए तो विकेंद्रीकरण आमतौर पर 04 तरीकों से होता है- विकेंद्रीकरण, शक्तियों का प्रत्यायोजन, शक्तियों/अधिकारों का हस्तांतरण और निजीकरण।

यहां हम मुख्य तौर पर बात करेंगे- पंचायती राज व्यवस्था के संदर्भ में डेवोल्यूशन की जिसका अर्थ है- किसी भी कार्य विशेष को करने का प्राधिकार जब राज्य से स्थानीय सरकारों को हस्तांतरित कर दिया जाता है तो इन स्थानीय सरकारों को उस कार्य की योजनाएं–परियोजनाएं बनाने और उन्हें कार्यान्वित करने का परमाधिकार भी मिल जाता है, तो जाहिर है उन्हें इन कामों के लिए जरूरी स्टाफ और | वित्तीय संसाधन भी सौंपे जाने चाहिए। या यूं कहिए, गतिविधियां, उन्हें चलाने | के लिए वांछित संसाधन तथा उन्हेंअंजाम देने वाले कार्यकर्ता तीनों का ही हस्तांतरण एक-दूसरे का पूरक है और आवश्यक भी। अधिकांश विकासशील देशों में शक्तियों को ऊपर से नीचे विकेंद्रित करने के लिए अक्सर यही तरीका अपनाया जाता है। सरकार अपना वरदहस्त तो बनाए रखती है, पर्यवेक्षी भूमिका भी निभाती है किंतु विकेंद्रीकृत संस्थाओं के रोज़मर्रा के कामकाज में दखलंदाजी नहीं करती। स्थानीय निकाय उस संस्थान को चलाने के लिए स्वयं ही धन जुटाते है, उसका सुव्यस्थित प्रबंधन करते है, निर्धारित नियमो के अंदर रहते हुए सभी अहम फैसले लेते है और उन्हें अमलीजामा पहनाते है

एक पंक्ति में कहें, तो इस सारी प्रक्रिया का उद्देश्य होता हैकार्यान्वयन से संबंधित अहम फैसले लेने में उस परियोजना विशेष के लाभार्थियों को जोड़ना। पंचायती राज व्यवस्था एक प्रकार से, लोगों की अपनी सरकार होती है। उनके अपने विकास के लिए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और राजनेता जय प्रकाश नारायण ने 'ग्राम स्वराज' का जो सपना देखा था, उसे साकार करने का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण जरिया है। अब गौरतलब यह है, क्या वह मूल उद्देश्य पूरा हो पाया है, जिसे लेकर यह व्यवस्था स्थापित की गई थी? आइए, इस पर विचार करते हैं- तीनों के नजरिए से- (i) | ग्रामीण आम जन, (ii) जनता द्वारा चुने गए राजनैतिक प्रतिनिधियों और (iii) सरकारी अधिकारियों – गांववासियों की नजर में यह वह संस्था है जो उन्हें बुनियादी सुविधाएं जैसे सड़कें, पेयजल, स्कूल, अस्पताल वगैरह मुहैया करवाती है। जनता के चुने प्रतिनिधि इसे गांवों के विकास और कल्याण के लिए कार्यक्रम करवाने का माध्यम मानते हैं तो राजकीय अधिकारी इसे जनतांत्रिक तरीकों से काम करने के लिए बनाई गई स्वायत्त शासन संस्था मानते हैं, जो सरकारी कार्यक्रमों, योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाते हैं। व्यवहार में देखें तो इस व्यवस्था को चलाने के लिए स्थानीय स्तर पर कुछ नेता उभर आते हैं जो सत्तासीन पार्टी को देहाती इलाकों में अपनी पैठ बनाने और अगले चुनावों में उनके लिए वोट बैंक जुटाने का काम करते हैं।

पंचायती राज व्यवस्था निम्नलिखित सिद्धांतों पर आधारित है :-

  • सांविधिक तरीके से चुनकर आई ये इकाईयां ग्रामस्तर पर ग्राम पंचायतब्लॉक / तालुका स्तर पर पंचायत समिति तथाजिला-स्तर पर जिला परिषद कहलाती हैं तीनों एक-दूसरेसे अंतर-संबंधित
  • सरकार द्वारा इन्हें शक्तियों और अधिकारों का सीधे और सच्चे तरीके से हस्तांतरण किया जाना;
  • विकास के काम करवाने के लिए इन्हें पर्याप्त निधियां उपलब्ध करवाना,
  • विकास के सारे काम इन्हीं के माध्यम से करवाना।
  • उपर्युक्त के मद्देनज़रएक बात निर्विवाद है कि हमारे विकासशील देश के त्वरितचहुंमुखी और सर्व-समावेशी विकासके लिए पंचायती राज व्यवस्था यकीनन आवश्यक है, अति महत्वपूर्ण है और बेहद कारगर भी हो सकती है बशर्ते इन्हें ठीक से चलाने दिया जाएं, इनकी बुनियाद मजबूत हो, नीयत साफ और दिशा स्पष्ट हो।

अतीत के झरोखे से देखें तो आजादी से पहले के 1870 के मेयो संकल्प, आजाद भारत में महात्मा गांधी के स्वराज स्वप्न' को साकार करने के प्रयासतब से हुई राजनीतिक उठापठक, बलवन्त राय समिति, अशोक मेहता समिति, जीवीके राय समिति, एलएम सिंघवी समिति आदि के माध्यमों से सहमति-असहमति के लंबे दौर से गुजरती हुई पंचायती राज व्यवस्था को पुर्नजीवित करने के हाल ही के प्रयत्नों पर नजर डालें तो 64वें तथा 71वें संविधान संशोधन अधिनियमों के बावजूद यह व्यवस्था मृतप्रायः रही और अन्ततः 1991 के 73वें संशोधन जो 24 अप्रैल1993 को लागू हुआ, से इस व्यवस्था को पुनप्राणशक्ति मिली और सभी राज्यों में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था स्थापित हुई। इसीलिए हर साल 24 अप्रैल को पंचायती राज दिवसमनाया जाता है। हर पांच साल में चुनाव अनिवार्य कराया जाना, एक तिहाई सीटें महिलाओं और अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए आरक्षित करना, राज्य-स्तरीय चुनाव आयोग का गठनवित्त आयोग का गठन आदि इस संशोधन अधिनियम में उठाए गए ऐतिहासिक कदम हैं। प्राथमिक शिक्षाप्रौढ़ शिक्षापेयजल जैसी समस्याओं के हल ढूंढने में इन निकायों को स्वायत्तता दी गई है और महालेखाकार अंकेक्षक की भूमिका का भी प्रावधान रखा गया है। नौकरशाहों और राज्य सरकार की भूमिका व हस्तक्षेप कम से कम करते हुए स्थानीय सरकारों को स्थानीय चुनावनिकाय के प्रति जवाबदेह बनाया गया है।

पंचायती राज व्यवस्था लो सफलता के लिए बेहद जरूरी है की उन्हें शक्तियां / अधिकारों ला हस्तांतरण लेवल नाम के लिए महि बल्कि वित्तीय व् प्रशासनिक दोनों ही तरह का हो, सच्ची स्वायतत्ता के साथ। उसमे निम्नलिखित शामिल हो :-

  • कार्यो का आबंटन
  • निधियों का आंबटन
  • कार्यकर्ता उपलब्ध करना:
  • स्टाफ पर कार्यकर्ताओं का प्रशासनिक नियंत्रण ;
  • बजट और स्टॉफ सहित कार्यक्रमों और योजनाओं का हस्तांतरण ;
  • स्थानीय - स्तर पर प्रशासनिक और वित्तीय निर्णय लेने की आजादी ;
  • कार्यकर्ताओं तथा उनके स्टॉफ का क्षमता निर्माण

243 -जी में पंचायतों की परिकल्पना स्वायत्त शासन संस्थाओं के का रूप में की गई है और संविधान की 8वीं अनुसूची में आधारस्तरीय विकास संबंधी 29 विषय' पंचायतों को सौंपे गए हैं जबकि व्यवहार में जब अधिकार और शक्तियां ट्रांसफर करने की बात आती है। तो इन्हें राज्यों के विधानमंडलों की दया पर छोड़ दिया गया है। पंचायती राज के संचालन का आधार विभिन्न स्तरों पर चुनावों को ही बनाया गया है, ताकि (1) ग्रामवासियों में स्थानीय समस्याओं के प्रति जागरूकता हो, (2) उनमें राजनीतिक जागरूकता बढ़े (3) मताधिकार का उचित प्रयोग हो, (4) मताधिकार के प्रयोग का प्रारंभिक प्रशिक्षण दिया जा सके तथा (5) मतदाताओं की उदासीनता दूर की जा सके क्योंकि चुनाव ही हमारे स्वराज्य की नींव हैं। किंतु भारत में इस व्यवस्था की प्रगति धीमी ही रही कारण, संविधान की दृष्टि से भले ही ये स्वायत्त शासन संस्थाएं हैं। किंतु भारत के राजनैतिक संघीय ढांचे को देखें तो अधिकांश वित्तीय अधिकार संबंधित राज्य सरकारों के विधानमंडलों के विवेकाधिकार पर छोड़ दिए गए हैं। नतीजनपंचायती राज संस्थाओं के कार्य और शक्तियां हर राज्य में अलग-अलग हैं। वहां की सरकारों की दया पर आश्रित कई राज्यों में तो पंचायती राज व्यवस्था के त्रि-स्तरीय ढांचे के चुनाव ही नहीं होतेनौकरशाहों का सत्ता मोह उनके और पंचायती कार्यकर्ताओं के बीच संवादहीनता, दायित्वों में अस्पष्टता के अलावा, ग्रामीण मतदाताओं के दृष्टिकोण में भी संकुचन और उदासीनता देखने को मिलती है। ग्रामीण लोगों ने पंचायती संस्थाओं के चुनावों में पंचपरमेश्वर की पवित्रता भुला दी है जिससे पंचायती संस्थाओं का धरातल ही डगमगाने लगा है।

हमारे पंचायती राज मंत्रालय ने 2014 में एक स्टडी टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस के माध्यम से करवाई, यह देखने के लिए की देश के सभी राज्य पंचायती राज व्यवस्था में शक्तियों / अधिकारों के हस्तांतरण में कौन से नंबर पर रहे है। उपयुर्क्त तालिका से स्पष्ट है कि संशोधित डेवोल्यूशन सूचि के अनुसार केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे राज्य समग्र सूचि में सबसे उप्पर रहे जबकि जम्मू- कश्मीर, उत्तर प्रदेश, पंजाब और झारखण्ड का प्रदर्शन निम्नतम रहा।

सुझाव

भारत जैसे देश, जिसमे 6 लाख से भी अधिक गांव हो, पंचायती राज व्यवस्था न होगी। भले ही 73वे सविधान संशोधन से पंचायती राज व्यवस्था के संगठनात्मक ढांचे में सुधार लाने के प्रयत्न किये गए है। जरूरत है इनके प्रतिनिधियों द्वारा चलाई जा रही गतिविधियों, लगाए जा रहे पैसे, अपनाये जा रहे है तरीको की वैज्ञानिक तरीको से विश्लेषण की।

  • पंचायतो की वित्तीय हालत सुधारनी होगी। उन्हें आय के प्रयाप्त तथा स्वंत्रत स्रोत दिए जाये ताकि उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो सके।
  • पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों को व्यावसायिक तथा व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाए।
  • प्रशासक और विशेषज्ञों को योजनाएं बनाने और चलाने में स्वतंत्रता दी जाए ताकि वे अपने अनुभवों के आधार पर कार्यकुशलता से काम कर सके। व्याप्त गुटबंदी पर रोक लगाने के लिए सख्त कदम उठाए। जाए ताकि पदाधिकारी निहित स्वार्थों से मुक्त हो पंचायतों के मित्र, दार्शनिक एवं पथ-प्रदर्शक के रूप में कार्य कर सकें।
  • पंचायतों के चुनावों में मतदान को अनिवार्य करना होगा एवं जो मतदाता चुनाव में भाग न लें, उन पर मामूली ही सही पर जुर्माना लगाया जाए
  • जिला-स्तर के योजनाकार ग्राम्य जीवन की वास्तविकताओं को समझने के लिए वहां जाकर कुछ समय गुजारें ताकि योजनाएं सार्थक बनें और कार्यान्वित करने में आसान हों;
  • प्रशासन उन्हें यथार्थपरक आंकड़े और तथ्य जुटाने में मदद करे
  • मनरेगा आपदा प्रबंधन अधिनियम तथा खाद्य सुरक्षा विधेयक जैसी कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में ग्रामसभा की सशक्त भूमिका सामाजिक अंकेक्षण को लेकर महत्वपूर्ण हो। मनरेगा अधिनियम की अनदेखी इसलिए हो रही है क्योंकि न तो ग्रामसभाएं सशक्त हैं और न ही इनके कार्यों का सोशल ऑडिट होता है।

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Courtesy: Kurukshetra