(GIST OF YOJANA) उच्च शिक्षा से सामाजिक बदलाव [August] -2018


(GIST OF YOJANA) उच्च शिक्षा से सामाजिक बदलाव [August] -2018


उच्च शिक्षा से सामाजिक बदलाव

इस 'सामाजिक तथ्य के बारे में ज्यादातर लोगों को पता है। कि कुछ जातियां और जनजाति अन्य जातियों और जनजातियों की तुलना में ज्यादा सुविधासंपन्न हैं। इसी तर्क के लिहाज से कहा जाए तो कुछ अन्य जातियां और जनजातियां अन्य वर्गों के मुकाबले ज्यादा वंचित और गरीब हैं। इस सामाजिक तथ्य को ध्यान में रखते हुए संविधान ने अपेक्षाकृत कम साधनों वाले और वंचित समूहों (अनुसूचित जाति के लिए उनके पारंपरिक दर्जे पर आधारित उनकी संरचनात्मक कमियों के कारण और भौगोलिक अलगाव की वजह से अनुसूचित जनजाति के लिए) के लिए विशेष सुरक्षा और सकारात्मक उपायों का प्रावधान किया है। मसलन इन समुदायों से भेदभाव और अत्याचार के खिलाफ कानून बनाए गए हैं और इसके तहत छूआछूत (अनुसूचित जाति के मामले में) के चलन पर पाबंदी और जमीन और रिहायश के अधिकारों की सुरक्षा (अनुसूचित जनजाति के लिए), शिक्षा और रोजगार में छात्रवृत्ति और आरक्षण का प्रावधान (अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति दोनों के लिए) जैसे कदम उठाए गए हैं। और हाल में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति दोनों समुदाय के लोगों की बेहतरी के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के बजट के तहत सरकार । के विभिन्न विभागों में उप योजना बनाई। गई है। दरअसल, उप योजना के प्रावधानों के कारण पिछले दशक में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बीच उद्यमी और व्यापारिक वर्ग तैयार होने का मार्ग प्रशस्त हुआ।

‘नव' व्यापारिक वर्ग के एक छोटे से हिस्से के तौर पर उभरने की बढ़ती महत्वाकांक्षा से पहले देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बीच 'नई' पढ़ी लिखी मध्य वर्ग की पीढ़ी का उभार देखने को मिला। इस बाबत अध्ययनों में कठोर सामाजिक ढांचे के भीतर बदलाव लाने में शिक्षा और रोजगार को लेकर सकारात्मक नीतियों की भूमिका को लेकर काफी कुछ कहा गया है। बेशक, यह दावा किया जा सकता है कि उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान भारत में आजादी के बाद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बीच 'नया' मध्य वर्ग तैयार करने का मुख्य साधन है। उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों में सख्ती से आरक्षण लागू किए जाने से पहली पीढ़ी के ज्यादा से ज्यादा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति छात्रों को सामाजिक बदलाव संबधी बाधा पार करने के लिए प्रेरणा मिली और इस तरह से उनका सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक - तमाम मोर्चे पर सशक्तीकरण हुआ।

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उच्च शिक्षा में भागीदारी और सशक्तीकरण

सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण | की प्रक्रिया ने उच्च शिक्षा में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की भागीदारी | बढ़ाई, जो बेहतर जीवन, सामाजिक हैसियत और आर्थिक अवसरों का आधार है। पिछले | 15 सालों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सकल नामाकंन अनुपात में जबरदस्त सुधार हुआ है। मिसाल के तौर पर अनुसूचित जनजाति समुदाय ने 2014-15 में सकल नामांकन अनुपात में अपनी भागीदारी बेहतर करते हुए 19.1 फीसदी का आंकड़ा हासिल किया, जबकि 2005-06 में यह आंकड़ा महज 8.4 फीसदी था। इसी तरह, अनुसूचित जनजाति समुदाय ने उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात का रिकॉर्ड बेहतर किया। इसके तहत 2005-06 में इस बाबत आंकड़ा 6.6 फीसदी था, जो 2014-15 में बढकर 13.17 फीसदी से ज्यादा हो गया।
दरअसल, सरकारी नीतियों के जरिये | इस संबंध में जोर दिए जाने कारण इन दरों में साल 1999-2000 से लगातार सुधार देखने को मिल रहा है। इस दौरान यानि नई | सहस्राब्दि के पहले दशक में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में संस्थान निर्माण की नई लहर देखने को मिली। अगर हम 1999-2000 | में अनुसूचित जाति का सकल नामांकन अनुपात (5.09 फीसदी) पर विचार करें, तो 2014-15 तक इस संबंध में वृद्धि तकरीबन चार गुना हो जाती है। हालांकि, अनुसूचित जनजाति के मामले में वृद्धि सिर्फ दोगुनी (1999-2000 में 6.43 से 2014-15 में 13.7 फीसदी) हुई (राव, 2017: 159; भारत सरकार, 2016: पृ. 29 और 31)।

इसके उलट, बिना आरक्षण वाली कैटेगरी समेत सभी समूहों में सकल नामांकन अनुपात 2005-06 में 11.6 था, जो 2014-15 में | 24.3 फीसदी हो गया।

इन आंकड़ों से कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। साल 2000 से 2015 के दौरान उच्च शिक्षा में सभी समूहों की भागीदारी में अच्छी बढ़ोतरी हुई है। अनुसूचित जाति के मामले में यह बढ़ोतरी और तेज रही। इस जबरदस्त बढ़ोतरी से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को भी जबरदस्त फायदा हुआ। मिसाल के तौर पर 2005-06 (अनुसूचित जाति की महिलाओं का 6.4 फीसदी और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं का 4.7 फीसदी) से 2014-15 (अनुसूचित जाति की महिलाओं के लिए 18.2 फीसदी और अनुसूचित जनजाति महिलाओं का 12.3 फीसदी) के दौरान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की उच्च शिक्षा में भागीदारी तकरीबन तीन गुना बढ़ गई।

कुछ चिंताएं

बहरहाल, इस सिलसिले में कुछ चिंताएं स्पष्ट हैं। सामाजिक रूप से वंचित समूहों पर उच्च शिक्षा पर निजीकरण के हावी होने का प्रतिकूल असर काफी अहम है। दरअसल, निजीकरण की यह प्रक्रिया उच्च शिक्षा की हसरत रखने वाले अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की सामाजिक बदलाव की संभावनाओं को सीमित करती जान पड़ती है। इसके दो मायने निकाले जा सकते हैं। पहला यह कि चूंकि साल 2000 के बाद उच्च शिक्षा में अधिकांश बढ़ोतरी निजी पेशेवर शिक्षा के क्षेत्र में हुई है और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के बड़े हिस्से तक इसकी उपलब्धता नहीं है, क्योंकि इन संस्थानों में आरक्षण की सुविधा नहीं है। नतीजतन, उच्च शिक्षा में अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के सदस्यों की अधिकांश भागीदारी सामान्य उच्च शिक्षा से जुड़ी है। इसका मतलब यह है कि रोजगार पाने की उनकी संभावनाएं अच्छी नहीं हैं।

दूसरी बात यह कि निजी क्षेत्र में नौकरियों में आरक्षण नहीं है, जहां फिलहाल बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पाए जाते हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्र-छात्राएं या तो बचे रह जाते हैं या शिक्षित बेरोजगार बन जाते हैं। ये दो मुद्दे आजादी के बाद तेज हुई सामाजिक बदलाव की रफ्तार को सुस्त (वंचितों के लिए) कर देते हैं।

इसके अलावा, तमाम समूहों (खास तौर पर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदायों में) लैंगिक समानता गंभीर मुद्दा बना हुआ है। उच्च शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन अब भी वे पुरुषों के मुकाबले काफी पीछे हैं। अहम बात यह है कि शहरी इलाकों की अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की महिलाओं की स्थिति उनके ग्रामीण समकक्षों के मुकाबले काफी अच्छी है। इसका आशय यह है कि महिलाओं का बड़ा तबका उस सामाजिक बदलाव से फायदा नहीं उठा पा रहा है, जो उच्च शिक्षा की व्यापक उपलब्धता के जरिए हो रहा है। यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि उच्च शिक्षा में प्रवेश करने वाले शहरी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति महिलाएं मुख्य तौर पर सकारात्मक नीतियों की दूसरी पीढ़ी की लाभार्थी हैं।

इससे यह भी जाहिर होता है कि आम तौर पर सभी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति परिवारों की पहली पीढ़ी का बड़ा हिस्सा (खास तौर पर महिलाएं) सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण के लिए नीतिगत ढांचे और अवसरों के दायरे से बाहर है। इस बिंदु पर और जोर देने की खातिर हमें रोजगार के संगठित क्षेत्रों के भीतर ग्रामीण इलाके के अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति परिवारों की हालत की पड़ताल करनी चाहिए। | संगठित रोजगार क्षेत्र से जुड़ी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदाय की ग्रामीण आबादी की निराशाजनक तस्वीर पेश करता है, जिसमें (संगठित रोजगार) प्रवेश के लिए कुछ हद तक शिक्षा जरूरी शर्त है। साथ ही, यह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बीच सबसे ज्यादा वंचित लोगों के पक्ष में सकारात्मक नीति नहीं बनाए जाने के बारे में भी दर्शाता है।

शिक्षित लोगों से जुड़े रोजगार परिदृश्य की निराशाजनक तस्वीर के बीच चिंता की एक और वजह सरकारी क्षेत्र में नौकरियों का लगातार कम होना है। उदारीकरण के बाद के दौर में निजीकरण के बढ़ते प्रचलन के परिणामस्वरूप सरकारी नौकरियों का विस्तार नहीं हो रहा है। और निजी क्षेत्र में किसी तरह का आरक्षण नहीं है, जो पढ़े-लिखे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति उम्मीदवारों के सशक्तीकरण की प्रक्रिया को सुस्त कर देता | है और पूरी तरह रोक देता है। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के बीच रोजगार की कमी के कारण इन सामाजिक समूहों की शिक्षा में दिलचस्पी और कम होगी।

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Courtesy: Yojana