(GIST OF YOJANA) पोषण के स्वास्थ्य सेवाओं की भूमिका [May-2018]
(GIST OF YOJANA) पोषण के स्वास्थ्य सेवाओं की भूमिका [May-2018]
पोषण के स्वास्थ्य सेवाओं की भूमिका
आजादी के बाद देश के पास पोषण सबंधी दो अहम समस्याएं थी। पहला अकाल का खतरा और इसके परिणामस्वरूप खाद्यान्न के कम उत्पादन के कारण भुखमरी की स्थिति जबकि दूसरी समस्या उचित खाद्यान्न वितरण प्रणाली की कमी थी। एक और चुनौती गरीबी, खाद्य असुरक्षा और पर्याप्त भोजन नहीं मिलने के कारण लंबे समय से चली आ रही कुपोषण को लेकर थी। अकाल और भुखमरी ने सुर्खियां बटोरीं क्योंकि इसका असर तीक्ष्ण और स्पष्ट तौर पर नजर आने वाला था। दरअसलइससे काफी कष्ट हुआ और कई मौतें भी हुई।
हालांकि, पर्याप्त मात्रा में भोजन का नहीं मिलना व्यापक स्तर पर फैली हुई खामोश समस्या थी। इसके कारण कुपोषण खराब स्वास्थ्य के अलावा भुखमरी से भी ज्यादा मौत हो रही थी। कुपोषण और खराब स्वास्थ्य के कारण सभी आयु वर्ग में उच्च मुत्यु दर और रोगियों की बड़ी संख्या नजर आती थी और औसत जीवन प्रत्याशा महज 35 साल थी। मानव के विकास के लिए स्वास्थ्य और पोषण बेहद जरूरी है और मानव संसाधन देश के विकास को आगे बढ़ाने के लिए इंजन की तरह है।
पोषण और स्वास्थ्य के तार एकदूसरे जुड़े होने के कारण स्वास्थ्य संबंधी कई पहल के कारण स्वास्थ्य और पोषण दोनों मामलों में स्थिति में सुधार हुआ है, जबकि पोषण को लेकर की गई पहल में स्वास्थ्य संबंधी भी बेहतर नतीजे देखने को मिले हैं। पिछले दो दशकों में गैर-संक्रमण वाली बीमारियों और जरूरत से ज्यादा पोषण के मामले में लगातार बढ़ोतरी हुई है। लोग जरूरत से ज्यादा पोषण के कारण खराब स्वास्थ्य नतीजों को लेकर पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं, लिहाजा वे मोटोपे को नजरअंदाज कर देते हैं। गैर-संक्रमण वाली बीमारियों के शुरुआती दौर में लक्षणों का पता नहीं चलता है। बीमारी की जटिलता बढ़ने के बाद ही इसके लक्षण नजर आते हैं और तब मरीज इलाज का रुख करते हैं। मोटापे के कारण स्वास्थ्य संबंधी नुकसान को लेकर जागरूकता बढ़ाना जरूरी है। साथ ही, मोटोपे की समस्या को रोकने के लिए अभियान चलाने की जरूरत है। इसके साथ-साथ असंक्रामक वाली बीमारियों के प्रबंधन के तहत गैर-संक्रमण वाली बीमारियों से पीड़ित लोगों में पोषण का सामान्य स्तर बहाल करने के लिए भी पहल करना होगा। यह आलेख पोषण संबंधी चुनौतियों से निपटने म स्वास्थ्य सेवाओं की भूमिका की संक्षेप में समीक्षा करेगा।
प्री स्कूल कुपोषण में गिरावट
स्कूल जाने से पहले के दौर के बच्चों की पहचान कुपोषण और खराब स्वास्थ्य के लिहाज से सबसे असुरक्षित समूह के तौर पर की गई थी। इस आयु वर्ग के बच्चों में कुपोषण के कारण उनमें संक्रमण की आशंका बढ़ जाती है। संक्रमण से कुपोषण और छोटे-मोटे पोषक तत्वों की कमी की समस्या और गंभीर हो जाती है। अगर कुपोषित बच्चों में जोरदार या बार-बार संक्रमण होने और इसका इलाज नहीं होने पर मौत भी हो सकती है। लिहाजा, स्कूलों जाने से पहले के दौर के बच्चो में कुपोषण की समस्या को घटाने पर सबसे ज्यादा प्राथमिकता दी गई।
हालांकि, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस) -4 आंकड़ों के मुताबिक यहां तक कि 2015 में भी दोनों पहलुओं के तहत कवरेज कम रही (आरेख-1) राष्ट्रिय पोषण निगरानी ब्यूरो (एनएनएमबी) की तरफ से किए गए सर्वेक्षण से मिले आंकड़ों के मुताबिक, आईसीडीएस की खराब कवरेज के बावजूद स्कूल जाने से पहले के दौरे के बच्चों में कुपोषण का फैलाव कम हुआ है। (आरेख-2)। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे 23 और 4 में 1990 और 2015 (आरेख-3) के बीच इसी तरह का चलन देखने को मिला। इस अवधि के दौरान नवजात और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में लगातार गिरावट हुई (आरेख-4)। सर्वे के मुताबिक 5 साल से कम उम्र के बच्चों में मौत की मुख्य वजह संक्रमण थी और 1970 से 2015 के दौरान 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में लगातर गिरावट की अहम वजह टीकाकरण संबंधी स्वास्थ्य सेवाओं में बड़े स्तर पर सुधार और पांच साल से कम उम्र के बच्चों में संक्रमण के इलाज की सुविधा हैं। संक्रमित बीमारियों की रोकथाम और इसके इलाज के कारण संक्रमण के कारण होने वाले ऊर्जा संबंधी नुकसान में कमी आई और पोषण की हालत को खराब होने से रोका जा सका। लिहाजा, पिछले 4 दशकों में छोटे बच्चों स्कूल जाने से पहले के दौर के) में कुपोषण की दर में लगातार गिरावट का लक्ष्य हासिल करने में स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता में बेहतरी का अहम रोल रहा है।
स्वस्थ युवावस्था के लिए बचपन में पोषण
भारतीय बच्चे जन्म से ही कद में छोटे और कम वजन वाले होते है। चूँकि जन्म के समय बच्चे का वजन उसकी बढ़ोतरी में अहम कारक होता है , लिहाजा कम वजन वाले बचो की नवजात अवस्था, बचपन और किशोरवस्था में बढ़ोतरी अपेक्षाकृत सुस्त होती है। नतीजतन, तक़रीबन आधे बच्चे को नाटा और कम वजन की श्रेणी में रख दिया जाता है। पोषण सम्बन्धी स्थिति के आकलन के लिए मुख्य तौर पर मनको का इस्तेमाल किया जाता है , इस मनको में लम्बाई, वजन और बीएमआई (बॉडी मास इंडेक्स) शामिल है। तीनो मनको में बीएमआई मौजूदा अवस्था में ऊर्जा की पर्याप्तता का संकेतक है और इसे लम्बे समय से व्यस्क लोगो में पोषण की हालत के सूचक के तोर पर स्वीकार कर लिया गया है।
हालाँकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों के मुताबिक उम्र के हिसाब से
बच्चों का बीएमआई आंकड़ा सिर्फ 2006 (0-5 साल) और 2007 (5-18 साल) में उपलब्ध हुआ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों पर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 के आकडों
के विश्लेषण से पता चलता है कि अगर उम्र के हिसाब से कुपोषण के मानकों के लिए
बीएमआई का इस्तेमाल किया जाता है, तो 5 साल से कम के सिर्फ 184 फीसदी बच्चे पोषण की
कमी से जूझ रहे थे, जबकि 2.6 फीसदी जरूरत से ज्यादा पोषण के शिकार थे (आरेख-5)।
भारत से जुड़े शोध अध्ययनों के आंकड़ों के मुताबिक, 5 साल से कम उम्र के जो बच्चे
जरूरत से ज्यादा वजन हासिल कर लेते हैं, उनमें बड़े होने पर मोटापा संबंधी बीमारी
रक्तचाप और मधुमेह जैसी बीमारियों का खतरा ज्यादा होता है।
विटामिन की कमी का सामना
960 के दशक में गरीबी के दौरान देश की आबादी के गरीब तबके के बीच बड़े पैमाने पर
खाद्य असुरक्षा और भूख ने पांव पसार रखा था। भोजन के रूप में तमाम पोषण तत्वों की
खपत काफी कम थी और छोटे बच्चों में भारी कुपोषण काफी आम था। हरी और पीली सब्जियों
की कम खपत के कारण बड़े पैमाने पर विटामिन ए की कमी थी। भीड़-भाड़ वाले घरों में
रहने वाले बच्चों में सांस संबंधी संक्रमण और खसरे की दर काफी ज्यादा थी। शहरी इलाकों
में संक्रमण से निपटने के लिए बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत काफी खराब थी,
जबकि ग्रामीण इलाकों में इस तरह की सुविधाएं नदारद थीं। पहले से कुपोषण के शिकार
बच्चों का जोरदार संक्रमण का इलाज नहीं होने (खासतौर पर चेचक) से अंधापन की समस्या
पैदा हो जाती थी और संक्रमण के बाद किसी तरह बचने वाले बच्चे पोषण की कमी के कारण
अंधेपन का शिकार हो जाते थे।
राष्ट्रीय पोषण संस्थान की तरफ से किए गए अध्ययनों के मुताबिक, एक से तीन साल तक की
उम्र के बच्चों में 6 महीने में एक बार विटामिन ए की जबरदस्त डोज (20,000 यूनिट्स)
दी गई, जिससे जिराफ्थैल्मी (आंख संबंधी बीमारी) के मामलों में 80 फीसदी तक कमी आई।
इन अध्ययनों के नतीजों के आधार पर 1970 में 1-5 साल के बच्चों को हर 6 महीने में एक
बार सप्लीमेंट (एमडीवीएएस) देने की शुरुआत की गई थी, लेकिन इस अभियान के तहत कवरेज
काफी कम (10 फीसदी) थी।
हरेक जगह आयोडीनयुक्त नमक की पहुंच और स्वास्थ्य पर इसका असर
भारत में आयोडीन की कमी संबंधी समस्या की पहचान 1920 के दशक से ही सार्वजनिक
स्वास्थ्य संबंधी समस्या के तौर पर की गई है। बाकी सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी के
उलट आयोडीन की कमी संबंधी गड़बड़ी पानी, मिट्टी और खाने-पीने की चीजों में आयोडीन
की कमी के कारण होती है और यह एक निश्चित भौगोलिक इलाके में रहने वाले सभी
सामाजिक-आर्थिक समूहों को प्रभावित करती है। गर्भावस्था के दौरान आयोडीन की कमी
संबंधी गड़बड़ी गर्भपात की ऊंची दर और भ्रूण संबंधी बर्बादी से जुड़ी थी। आयोडीन की
कमी वाली मांओं के गर्भ से पैदा हुए बच्चों को अंधेपन और मानसिक तौर पर सुस्ती का
शिकार होना पड़ता था। वयस्कों में भी आयोडीन की कमी के कारण कई तरह की बीमारियां
होती हैं। आयोडीन युक्त नमक का सार्वभौमिक इस्तेमाल आसान है। यह आयोडीन की कमी
संबंधी गड़बड़ियों को रोकने का सस्ता तरीका है।
1980 के दशक में किए गए सर्वे के मुताबिक, आयोडीन की कमी संबंधी बीमारी देश के सभी
राज्यों के कुछकुछ हिस्सों में थी। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए नेशनल आयोडीन
डिफिशिएंसी डिजर कंट्रोल प्रोग्राम (एनआईडीडीसीपी) नामक अभियान 1992 में शुरू किया
गया, जिसका मकसद लोगों की खपत वाले सभी नमक को आयोडीन वाला बनाना था, ताकि हर घर
में आयोडीनयुक्त नमक की उपलब्धता सुनिश्चित हो सके
दोहरा पोषण और वयस्क स्वास्थ्य
पिछले तीन दशकों में ट्रांसपोर्ट पेशा, घरेलू काम संबंधी गतिविधियों के मशीनीकरण में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। नतीजतन, शारीरिक गतिविधियों में भारी कमी आई है और ज्यादातर भारतीय बैठेबैठे सुस्त पड़ गए ह। खाना खाने की मात्रा म भी कुछ कमी आई है, लेकिन यह कमी शारीरिक गतिविधियों में आई गिरावट के अनुपात के मुकाबले काफी कम है। नतीजतन, जरूरत से ज्यादा पोषण में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। एनएनएमबी की तरफ से किए गए सर्वेक्षणों के आंकड़ों में बताया गया था कि पिछले चार दशकों में महिला और पुरुष दोनों में जरूरत से ज्यादा पोषण के मामले में तेजी से बढ़ोतरी हुई है।
1990 के दशक क मध्य और 2012 के बीच जरूरत से ज्यादा पोषण के मामले में बढ़ोतरी ज्यादा तेज थी (आरेख 9 और आरेख 10)। महिलाओं में जरूरत से ज्यादा पोषण के मामले पुरुषों में जरूरत से ज्यादा पोषण के मुकाबले ज्यादा थे। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों की मानें तो उम्र बढ़ने के साथ-साथ जरूरत से ज्यादा पोषण की दरों में बढ़ोतरी हुई (आरेख 11)। महिलाएं इस तरह के मोटापे को नजरअंदाज करती हैं और किसी तरह का स्वास्थ्य सलाह नहीं लेती है, लिहाजा उन्हें बीमारियों से संक्रमित होने का खतरा ज्यादा रहता है। मोटापे से जुड़े स्वस्थ्य सम्बन्धी खतरों को कम करने की लिए पुरुषो और महिलाओं की जरुरत से ज्यादा पोषण संबधी जाँच करना और उन्हें सही स्वास्थ्य संबंधी सलाह मुहैया कराना जरूरी है।
सार और निष्कर्ष
देश की स्वास्थ्य प्रणाली को कुपोषण संक्रमण और बच्चो की मां संबंधी समस्याओं के
बारे में जल्द से जल्द पता लगाने और इसके असरदार इलाज पर फोकस के साथ तैयार किया गया
था। इनमे से ज्यादातर स्वास्थ्य समस्याएं लक्षण संबंधी और विकट है। लोगो के पास
इलाज की उपलब्धता है और कुपोषण और संक्रमण का आसानी से इलाज किया जा सकता है। पिछले
कुछ साल में इलाज की सुविधाएँ में बेहतरी आई है और इससे कुपोषण, खराब सेहत और मृत्यु
दर में लगातार कमी आई है।
के निजी सिस्टम दोनों के अहम तत्व हैं। आदर्श स्थिति में सभी लोगों की समयसमय पर
जांच-पड़ताल की जानी चाहिए और समाज के कमजोर तबकों मसलन बच्चों किशोर, गर्भवती और
स्तनपान कराने वाली महिलाओं और बुजुर्गों के बीच विशेष रूप से और नियमित तौर पर इसे
अंजाम दिया। जाना चाहिएनियमित अंतराल पर इस तरह की जांच पड़ताल, सही सलाह-मशवरा और
पोषण संबंधी कमियों के लिए असरदार प्रबंधन आदि के लिए न तो पोषण या। स्वास्थ्य
सेवाएं तैयार हैं और न ही देश के। लोग। लिहाजा, जब कोई शख्स स्वास्थ्य या । पोषण
संबंधी देखभाल चाहता हो, तो हमें पोषण की स्थिति की जांच आकलन के साथ। शुरुआत करनी
चाहिए एक बार सही आकलन जांच हो जाने के बाद उनकी पोषण संबंधी स्थिति के आधार पर
उचित सलाह । देने चाहिए?
- पोषणयुक्त शख्स आमतौर पर अपनी मौजूदा जीवनशैली को बचाते हैं और सामान्य पोषण और स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए मदद मुहैया कराते हैं;
- जो लोग कुपोषित या स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के लिए जोखिम वाली स्थिति । हैं- उन्हें उचित खान-पान और शारीरिक गतिविधियों को लेकर उचित सलाह दी जाए, जरूरी पड़ने पर अतिरिक्त पोषक तत्वों और सुधार की निगरानी की सुविधा भी मुहैया कराई जाए;
- जो बीमारी की चपेट में आ चुके हैं स्वास्थ्य और पोषण को फिर से सामान्य बनाने के लिए पोषण संबंधी समस्याओं की पहचान करें, स्वास्थ्य और पोषण संबंधी इलाज मुहैया कराएं और उनक रेस्पॉन्स की निगरानी करें।
डॉक्टरों को सही पोषण और जीवनशैली संबंधी उचित सलाह मुहैया कराकर दोहरे पोषण और बीमारियों के बोझ से लड़ने में अहम रोल अदा करना पड़ता है। स्वास्थ्य और पोषण सेवाओं के बीच तालमेल को बढ़ावा देने से देश सफलतापूर्वक पोषण संबंधी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होगा और आबादी का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य और पोषण के क्षेत्र में तेज सुधार हासिल कर सकेगा।
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Courtesy: Yojana