(GIST OF YOJANA) कुपोषण से लड़ाई : कठिन डगर [May-2018]


(GIST OF YOJANA) कुपोषण से लड़ाई : कठिन डगर [May-2018]


कुपोषण से लड़ाई : कठिन डगर

पूर्व अमेरिका राष्ट्रपति जॉन ऍफ़ कनेडी का एक प्रसिद्ध व्यक्त्व है , भूख के खिलाफ जंग ही मानवता की आज़ादी का असली जंग है तो क्या हम हिंदुस्तानी मानवता की इस आजादी को अब तक हासिल कर पाए हैं? स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशक बीत जाने के बाद भी आम भारतीयों खासकर महिलाओं एवं बच्चों में भूख और पोषण का स्तर बेहद चिंताजनक है। वैश्विक भूख सूचकांक वैश्विक पोषण रपट, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे आदि सभी स्रोतों के आंकड़े भारत में भूख और कुपोषण में लिपटी बहुजन की बदहाली को बयां करते हैं जो अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन के मुताबिक आज़ादी के वक्त से आज तक जस की तस कायम है। इस आलेख का मुख्य मकसद सरकार, नीतिनियंताओंयुवाओं और सबसे अहम देश की अवाम को भूख और कुपोषण की भयावह यथास्थिति से रूबरू कराना है ताकि अब और अधिक समय तक इस विभीषिका की उपेक्षा न की जाए।

भूख और कुपोषण की मौजूदा स्थिति

दीर्घ काल से भूख की समस्या से ग्रसित दुनिया का हर चौथा व्यक्ति हिंदुस्तानी है। मसलन भारत दुनिया की सबसे बड़ी भूखी आबादी (19 करोड़ जो देश की कुल आबादी का 14.5 फ़ीसद है) वाला मुल्क है। वैश्विक भूख सूचकांक 2017 (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) की 119 देशों की सूची में भारत है 100वें स्थान पर है। यह सूची बताती है कि देश में भूख और कुपोषण की समस्याएं है कितनी गंभीर है। इंटरनेशनल फ़ूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट (आईएफपीआरआई) द्वारा जारी इस सूचि के मुताबिक भारत में भूख की समस्या लगभग उत्तर कोरिया और इराक जैसी ही है। एशिया देशो में भारत में भूख की समस्या लगभग उत्तर कोरिया और इराक जैसी ही है। एशियाई देशो में भारत का प्रदर्शन काफी निम्न दर्जे का है हम केवल पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मुकाबले ही बेहतर स्तिथि में है।

यूनाइटेड नेशन्स पोपुलेशन फंड के अनुसार भारत में बाल विवाह रोधी कानून होने के बावजूद हर चौथी लड़की 18 वर्ष से कम उम्र में ही ब्याह दी जाती है। ऐसी अवयस्क महिलाओं की होनेवाली संतानों में कुपोषण दोष का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। देश में तीस फीसदी बच्चे अल्पपोषित (जन्म के समय सामान्य से कम वजन वाले) अवस्था में पैदा होते हैं। इस प्रकार देश की आबादी में हर साल 70 लाख कुपोषित बच्चे जुड़ते चले जाते हैं। ग्लोबल अलायन्स फ़ॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रिशन की स्वतंत्र निदेशिका विनीता बाली इसे पीढ़ीगत कुपोषण चक्र की संज्ञा देती हैं। अगर हम एनएफएचएस-3 (2005-06) से वर्तमान स्थिति की तुलना करें तो पाते हैं। कि बीते एक दशक में ठिगनापन (स्टंटिंग) तथा कम वजन (अंडरवेट) के शिकार बच्चों क अनुपात में क्रमश: 10 तथा 7 प्रतिशत की कमी आयी है वही अल्पोष्ण (वेस्टिंग) के मामले बीते दस सालो में 20 प्रतिशत से बढ़कर 21 प्रतिशत हो गए। आईएफपीआरआई के मुताबिक बाकि के सिर्फ तीन देशो जिबोती, श्रीलंका और दक्षिणी सूडान में यह दर 20 प्रतिशत से अधिक है। अल्पोष्ण की दिशा में पिछले 25 सालो में भारत में सुधार नगण्य ही रहा है।

राष्ट्रीय सर्वेक्षण परिवार स्वास्थ्य 2015 -16 के आंकड़ों के मुताबिक बीते पाँच साल में पैदा हुए मात्र 42 प्रतिशत बच्चों को ही जन्म के एक घंटे के भीतर (जैसा कि डॉक्टर सलाह देते हैं) स्तनपान कराया गया। नवजात को समय से स्तनपान कराने के मामले में अनपढ़ और ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाएँ काफी पीछे हैं। ऐसे मामले सामान्य तौर पर गैर-संस्थागत प्रसव में अधिक देखें गए हैं। देश में छह माह से कम उम्र के सिर्फ 55 फ़ीसदी बच्चों को ही एक्सक्लूसिव स्तनपान (जन्म से छह माह तक सिर्फ और सिर्फ़ माँ का दूधजैसा कि डॉक्टर सुझाव देते हैं) का अवसर नसीब हो पाता है। हालाँकि इस दिशा में बीते दस वर्षों में 9 फ़ीसदी इजाफा हुआ है। अच्छी बात यह है। एक्सक्लूसिव स्तनपान का माध्य मात्र बीते दस वर्षों में 45 प्रतिशत बढ़ कर 2.9 माह हो गया है। बीते दस वर्षों में किसी भी प्रकार के स्तनपान कराने की अवधि का माध्य भी 24.4 माह से बढ़कर 29.6 माह हो गया। है। गौर करने वाली बात यह है कि ग्रामीण इलाकों में किसी भी प्रकार के स्तनपान कराने की अवधि का माध्य शहरी इलाकों से बेहतर है। लेकिन शहरी नवजात को ग्रामीण नवजात की तुलना में बेहतर अनुपात पोषक आहार उपलब्ध हो पाते हैं।

वयस्कों में देखें तो 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की 53 फ़ीसदी महिलाएँ जबकि 23 प्रतिशत पुरुष रक्त-अल्पता (एनीमिया) से ग्रसित हैं। बीते दस सालों में इस आंकड़े में नगण्य सुधार हुआ है। ज़ाहिर है वर्षों स दश में हर दूसरी औरत (15-49 आयु वर्ग में) खून की कमी से जूझ रही है और उनके बच्चे भी स्वाभाविक रूप से एनीमिया की जद में आ जाते हैं। गरीब तबके में यह समस्या धनवान समुदाय के अपेक्षाकृत अधिक मौजूद है। औरतों में एनीमिया की मौजूदगी झारखंड, हरियाणा, पश्चिम बंगाल बिहार और आंध्रप्रदेश में 60 प्रतिशत से भी अधिक है जबकि मिजोरम, मणिपुर और नागालैंड की स्थिति सबसे कम खराब (30 प्रतिशत से कमहै। इस प्रकार आंकड़ों से जाहिर है कि भूख और कुपोषण के मामले में भारत के मौजूदा हालात बेहद खराब और दुखद हैं। यह गंभीर चिंता और इससे भी आगे शर्म की बात है की 21वीं सदी के भारत में भी हर दूसरा बच्चा किसी न किसी रूप में कुपोषित या रोग्रस्त है। बीते ढाई दशकों में भारत बहुत तेज़ी से आर्थिक महाशक्ति बनने की दिशा में अग्रसर हुआ है लेकिन कूट सत्य यह भी है की हम अपने आर्थिक विकास दर को बहुजन की समृद्धि, खुशहाली और शांति में परिणत क्र पाने में नाकाम है।

र्तमान हालात और आंकड़ों को देख कर भारत का इन लक्ष्यों को पूरा कर पाना दूर-दूर तक संभव नहीं दिख रहा है। गौरतलब है कि हम सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (एमडीजी) के तहत सुनिश्चित भूख और कुपोषण संबंधी लक्ष्यों को भी पूरा करने में बुरी तरह से असफल रहे थे। हालाँकि वर्तमान सरकार ने हाल के वर्षों में महिलाओं एवं बच्चों में कुपोषण की समस्या को गंभीरता से लिया है और कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है राष्ट्रीय पोषण मिशनइसके तहत भारत सरकार ने वित्तीय वर्ष 2017-18 से अगले तीन वर्ष के लिए लगभग 9046 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान करते हुए देश के 115 पिछड़े जिलों में प्रति वर्ष ठिगनापन, अल्पोष्ण और एनीमिया के मामलो तथा कम वजन वाले बच्चो की तदाद में क्रमश : 2,2,3, तथा 3 प्रतिशत की कमी लाने का लक्ष्य है।

कमियों को सुधारें

भारत गणराज्य के संविधान के अनुच्छेद 47 में कहा गया है: पोषण और जीवन स्तर में वृद्धि करना तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाना सरकार का दायित्व है। ऐसा नहीं है कि बीते सत्तर सालों में सरकारों ने भूख और कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए। समय के संयुक्त राष्ट्र के अनुसार भारत में 40 फीसदी खाना बर्बाद हो जाता है। वहीं एक और आंकड़े के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया एक साल में जितना गेहूं उपजाता है उतना गेहूं भारत में समुचित भडारण के अभाव में हर साल बर्बाद हो जाता है। इस स्थिति पर 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था एक ओर देश में हर साल उचित भंडारण के अभाव में लाखों टन अनाज सड़ जाता है जबकि दूसरी ओर करोड़ों भारतीयों को भूखे पेट सोना पड़ता है। साथ कई महत्वाकांक्षी योजनाएं और नीतियाँ अस्तित्व में आई। एकीकृत बाल विकास योजना, मध्याह्न भोजन योजना, जनवितरण प्रणाली, आंगनबाड़ी कार्यक्रम आदि दुनिया की सबसे बड़ी कुपोषण निवारण योजनाएँ भारत में बरसों से चलाई जा रही हैं। इसी सिलसिले में पिछली यूपीए सरकार के मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन देश में बड़े पैमाने पर कोई स्पष्ट बदलाव नहीं हुआ है। इसकी कई वजहें हैं।

  1.  गरीबी, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, साफ़-सफाई और पोषण संबंधी विभिन्न सरकारी योजनाओं में तालमेल और समावेशी दृष्टिकोण व एकजुटता का अभाव। साथ ही राष्ट्रीय समस्याओं में पोषण को निम्न वरीयता दिया जाना।
  2.  योजनाओं पर तंत्र द्वारा सदाशयता और शिद्दत से अमल नहीं करना और भ्रष्टाचार और प्रक्रियात्मक विसंगतियों की भारी मार।
  3.  किशोरियों की कमजोर सामाजिक, शारीरिक व मानसिक स्थिति जैसे अशिक्षा, अपरिपक्व उम्र में विवाह और अतिरिक्त बच्चों का बोझ, खून की कमी इत्यादि।
  4.  पोषण, समुचित आहार, साफ सफाई, टीकाकरण, सरकारी योजनाओं की जानकारी और उनके लाभ उठाने संबंधी व्यापक जन-जागरूकता की कमी।
  5.  अनाज और भोजन की बेहिसाब बर्बादी

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार भारत में 40 फ़ीसदी खाना बर्बाद हो जाता है। वहीं एक और आँकड़े के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया एक साल में जितना गेहूं उपजाता है उतना गेहूँ। भारत में समुचित भंडारण के अभाव में हर साल बर्बाद हो जाता है। इस स्थिति पर 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था- एक आर दश। में हर साल उचित भंडारण के अभाव में लाखों टन अनाज सड़ जाता है जबकि दूसरी ओर करोड़ों भारतीयों को भूखे पेट सोना पड़ता है। सर्वोच्च अदालत की इस कठोर टिप्पणी के बाद भी हालात जस के तस हैं। अनाज के समुचित भंडारण और वितरण की व्यवस्था कर कम से कम हम भुखमरी की समस्या से पूर्णत: निजात पा सकते हैं। बाकी अन्य संस्थागत सुधारों जिनकी चर्चा ऊपर की गयी है के द्वारा कुपोषण की समस्या को समूल समाप्त किया जा सकता है। बस जरूरत है दृढ़ इच्छाशक्ति और समन्वित पहल की। सबसे बड़ी त्रासद बात तो यह है कि देश की चुनावी राजनीति में भूख और पोषण जैसे बुनियादी मुद्दों का कहीं कोई स्थान ही नहीं है।
वैश्विक पोषण रपट 2017 भी बताती है। कि पोषण को गरीबी खत्म करने , बीमारियों से लड़नेशैक्षिक मानकों को बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन से निपटने जैसे प्रयासों के हृदय में रखने की जरूरत है। रिपोर्ट विकास के अन्य सभी मुद्दों के साथ ही कुपोषण के मुद्दे को भी विशेष स्थान देने पर जोर देती

पोषण: आर्थिक विकास की नींव

किसी भी राष्ट्र की आर्थिक तरक्की की बुनियाद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मूलत उसके नागरिकों के पोषण स्तर पर टिकी होती है। कुपोषण और आर्थिक बदहाली में परस्पर कार्य-कारण संबंध है। गरीबी और अभाव भूख और कुपोषण को जन्म देते हैं जबकि भूख और कुपोषण मनुष्य की शारीरिक और मानसिक क्षमता को कमजोर कर देते हैं और कई बार रोगग्रस्त भी। जिसका सीधा असर कार्य-क्षमता और फलस्वरूप आमदनी पर पड़ता है जो अंतत: गरीबी को जन्म देती है। भारत दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है लेकिन दुर्भाग्यवश बड़ी तादाद में हमारे युवा ग़रीब हैं, भूखे और अधनंगे हैं, कुपोषित और अस्वस्थ हैं, अशिक्षित हैं और उनमें कौशल एवं दक्षता का अभाव है। ऐसे में हम अपनी जनसंख्या की ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड' स्थिति का भरपूर फायदा नहीं उठा पा रहे है। कुछ बरस बाद यह युवा आबादी बुजुर्गो और वृद्धो के विशाल आश्रित आबादी में तब्दील हो जाएगी जो अर्तव्यवस्था पर बोझ होगा।

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Courtesy: Yojana